Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1976
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 329
________________ थे। इससे मैं यह ससझता हूं कि वह अन्दर में और है-जह पद्मणंदिणाहो सीमंदरसामि दिव्व गाणेण । बाहर में रज से अत्यंत अस्पर्शित थे। ण विथेहेइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ।।43।। हल्ली नं0 21 ग्राम हेग्गरे में एक मंदिर के विदेह क्षेत्रस्थ श्री सीमंधरस्वामी के समवसरण पाषाण पर लेख-'स्वस्ति श्री वर्द्धमानस्य शासने। में जाकर श्री पद्मनंदिनाथ ने जो दिव्यज्ञान प्राप्त श्री कुन्दकुन्द नामाभूत् चतुरङगुलचारणे ।' श्री किया था, उसके द्वारा यदि बोध न दिया जाता तो वर्द्धमान स्वामी के शासन में प्रसिद्ध श्री कुन्द- मुनिजन सच्चे मार्ग को कैसे जानते ? कुन्दाचार्य भूमि से चार अंगुल ऊपर चलते थे। पंचास्तिकाय के तात्पर्यवृत्ति की टीका के षट्प्राभूत की प्रशस्ति में नामपञ्चक विराज- मंगलाचरण में भी कहा है-अथ श्रीकुमारनंदि तेन चतरङ्ग लांकाशगमद्धिना पूर्वविदेहपुण्डरी- सिद्धान्तदेवशिष्यैः प्रसिद्धकथान्यायेन पूर्व विदेहं किणीनगरवन्दितसीमंधरजिनेन............ । पाच गत्वा वीतराग सर्वज्ञ सीमंदर स्वामी तीर्थकर नाम वाले श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने चतुरंगल अाकाश- परमदेवं दृष्ट्वा ....." । श्री कुमारनंदि सिद्धान्त गमन ऋद्धि द्वारा विदेह क्षेत्र की पूण्डरीकिणी नगरी देव के शिष्य जो कि प्रसिद्ध कथा के अनुसार पूर्व में स्थित श्री सीमंधर प्रभु की बंदना की थी। विदेह में जाकर वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकर सीमंदर स्वामी के दर्शन करके उनके मुख से निर्गत शंका समाधान-मूलाचार की प्रस्तावना में दिव्यवाणी के श्रवण द्वारा अवधारित पदार्थ से जिनदासपार्श्वनाथ फडकुले ने लिखा है-'भद्रवाहु शुद्धात्म तत्त्व के सार को ग्रहण करके आये थे। चरित्र के अनुसार राजा चन्द्रगुप्त के सोलह स्वप्नों का फल कथन करते हुए भद्रवाह प्राचार्य कहते षट्प्राभृत प्रशस्ति में---श्री पद्मनदि कुन्दकुन्दाहैं कि पंचमकाल में चारणऋद्धि आदि ऋद्धियां चार्यःनामपञ्चक विराजितेन चतुरङ्ग लाकाश संबोप्राप्त नहीं होती, इसलिये प्राचार्य कुन्दकुन्द को धित गमद्धिना पूर्व विदेह पुण्डरीकणीनगर वंदित चारणऋद्धि के संबंध में शंका हो सकती है, सीमंधरापरनाम स्वयंप्रभजिनेन तच् तज्ञान जिसका समाधान इस प्रकार समझना चाहिये भरतवर्षभव्यजीवेन श्री जिनचन्द्र भट्टारक पट्टाकि चारणऋद्धि का निषेध एक सामान्य कथन भरणभूतेन कलिकालसर्वज्ञेन विरचिते षट्है । पंचमकाल में ऋद्धि प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है प्राभृतग्रन्थे"..." । पृ० 379 यही उसका अर्थ है। पंचम काल के प्रारंभ में 'श्री पद्मनंदि कुन्दकुन्दाचार्यदेव जिनके कि ऋद्धि का प्रभाव नहीं है परन्तु आगे उसका प्रभाव पांच नाम थे, चारणऋद्धि द्वारा पृथ्वी से चार है ऐसा समझना चाहिये । यह कथन प्रायिक और अंगुल अाकाश में गमन करके पूर्व विदेह की पुण्डअपवाद रूप है । इस सम्बंध में हमारा कोई अाग्रह रीकणी नगर में गये थे। तहां सीमंधर भगवान् नहीं है। जिनका कि अपर नाम स्वयंप्रभदेव भी है, उनकी जिस प्रकार सामान्य कथन में पंचमकाल में बंदना करके आये थे । वहां से पाकर उम्होंने मुक्ति नहीं है किन्तु विशेष कारण से 3 केवली ने __भारत वर्ष के भव्य जीवों को सम्बोधित किया मुक्ति प्राप्त की है। था। वे श्रीजिनचंद भट्टारक के पट्ट पर आसीन हुए थे, तथा कलिकालसर्वज्ञ के रूप में विदेहगमन के प्रमाण-दर्शनसार में कहा है प्रसिद्ध थे।' 3-4 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392