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कोई सुनेगा?
उदयचन्द्र, प्रभाकर शास्त्री जैनदर्शनाचार्य, एम० ए०, रिसर्च स्कालर . जंवरीबाग, नसिया, इन्दौर, म० प्र०
- तम के साये में भटकती हुई प्रजा, जाये तो मेरी कोई सुनने वाला नहीं, यदि कोई है भी तो जाये कहां ? बेचारी पंगु, कान के परदे फट चुके मैं ही। थे, सुनाई नहीं दे रहा था। आंखें लाचार होकर बोध आया, मैं कहां खो गया था, यह वक्त यों बैठ गयी थी, चारों ओर धुधलाहट ही बाकी रह ही समाप्त कर देने का नहीं, उस त्रिशलानन्दन को गया था, कोई सुने या देखे तो कैसे देखे । देखो जिसने नश्वर शरीर की परवाह न करके पर
मार्थ का विशेष परिचय करना अपना लक्ष्य बनाया, __ कंठ रुधा हुअा, गूगे की तरह संकेत प्राप्त परमार्थ की सेवा ही सच्ची सेवा अपनी ज्ञानचक्षु करना चाहता, पर संकेत भी अोझल होते जा रहे से देखा-समझा, पतित और कुदृष्टि से दूर रहकर थे, यदि कुछ बचा था तो वह भी करुण कंदन, अपने सम्यक्त्व रत्न कोसम्भाल लिया । सच वो भी मंद-मंद हृदय की धड़कन की तरह ।। बात है
परमत्थसंथवो वा, सुविठ्ठपरमस्थसेवणाषा वि । डरो नहीं, साहस से काम लो, तुम्हारी पुकार वावन्नकुदंसरणवज्जणा य सम्मत्तसद्दहणा ।। कोई सुनेगा ? नहीं... नहीं"ऐसा कभी नहीं हो
॥उ० प्र० २८॥ सकता । आत्म-विश्वास की किरण पास होते हुए नहीं... मैं ऐसा नहीं, आखिर वो बीर, सन्मति भी यह कैसा रुदन ।
अति वीर, महावीर । कहां राई, कहां पर्वत । यह
सोचना ही व्यर्थ है । यह क्यों नहीं सोचता कि देखो सामने वो भी एक किसी मां का लाल
मानव-मानव एक है, आत्मा में कोई अन्तर नहीं है, जिसका अंग-प्रत्यंग कुछ बोध दे रहा है । नजर
है, यदि अन्तर है भी तो आत्मशक्ति का। वो भी पड़ी, होश आया दृष्टि जीवन के रमणीय क्षणो छिपी हुई है ऐसी बात नहीं, आत्मशक्ति उस ज्ञान की ओर अभी तक क्यों नहीं दौड़ी शायद खो गया
दीपक के समान है, जो एक बार प्रकाश में आ था इस जग के सपनों में । अब मालूम हुआ कि यह गई अर्थात जिसने उसे पहचान लिया, वह स्वयं संसार असार है, यहां कोई किसी की पुकार सुनने
___ महावीर बन गया। वाला नहीं है, यदि कोई है भी, तो वह भुलावे में रखने के लिए गली-कूचों में भटकते रहने के ' संसार महासमुद्र से तिरकर किनारे पर पहुँचलिए । अतः अपने जीवन के लक्ष्य को देखो, सोचो कर रुक क्यों गये ? अरे ! समुद्र के समान गंभीर, समझो तब समझ में आ जायेगा कि निश्चय ही दुर्जय किसी से नहीं दबने वाले, अनंत चतुष्ट्य महावीर जयन्ती स्मारिका 76
'3-7
आहह ५
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