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मृत्युञ्जय सूत्र
सम्यकदर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः
श्री प्रवीणचन्द्र छाबड़ा
जयपुर
"सम्यक् दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:" आगम पाचरण का स्पष्ट होना तभी होगा, जव दृष्टि का यह सूत्र जैनदर्शन, संस्कृति, प्राचार व विचार और समझ स्पष्ट होगी। दृष्टि और समझ को का सार है यह मृत्युजय सूत्र है । जिन्दगी को किस सही करते चला जाना ही समय को आचरण बना तरह जीया जावे कि मार्ग प्रशस्त रहे और मृत्यु - लेना है। विजित होकर रह जावे । मृत्यु, हर क्षण है, पगपग पर है । निरन्तर, हर क्षण प्रति क्षण हम समझ नहीं आता कि मुक्ति का अर्थ मृत्यु से मरते रहते हैं । समय, जो बीत रहा है, वह भूत कैसे जोड़ा जाता रहा है। मत्य तो अन्त है. होता चला जाता है और जो पा रहा है, वह भविष्य समाप्ति है और जैनदर्शन अन्त या समाप्ति को है। वर्तमान को कभी कोई पकड़ नहीं सका। कभी नहीं स्वीकारता। अनन्तदर्शन, ज्ञान व शक्ति भूत और भविष्य की सीमा रेखा करते रहने को को मान कर चलने वाला जैनदर्शन प्राचार, ही हम जीवन मानकर जीवन का भ्रम पालते रहे हैं, विचार या व्यवहार में मत्य से मक्ति मान कर जबकि निरन्तर मृत्यु को प्राप्त होते जाते हैं। चले, हो नहीं सकता। जीवन को कैसे मुक्त किया समय की गति पकड़ में आ जाय, यदि वर्तमान जाय कि वह जीवन्त बनकर रह जावे । सम्यकपकड़ में प्रा जाय । वर्तमान का दर्शन, ज्ञान और दर्शन, ज्ञान और चारित्र केवल सूत्र नहीं व्यवहार है चारित्र ही सम्यक्दर्शन, ज्ञान और चारित्र है। जितना वह हमारे जीवन में उतरता जाता है, उतना भत और भविष्य में रहते हए हमारा जीव सदेव द्री मक्ति का पथ प्रशस्त होता जाता है । स्वयं यह समझता रहा है कि हम बहुत कुछ समझ रहे को देखना, समझना और अनुभव करना ही जीवन्त हैं और जीवन को जी रहे हैं।
होना है। भगवान महावीर ने वर्तमान को समझा और समय उनका होकर रह गया । सम्यकदर्शन ज्ञान प्रतिदिन के जीवन में सहज और सरल होकर और चारित्र इस तरह उनमें पैठ गया कि हमारे देखने की विधि जितनी होगी, आचरण भी सहज लिये जो सत्र है, वह उनमें चरितार्थ हो गया। हो सकेगा और यह सहज भाव ही संकटों से हम इसे जितना चारित्र बना पाते हैं, उतने ही उबारने वाला है। परस्पर का अविश्वास, युद्ध, वर्तमान में होकर मृत्यु को जीतते हैं। भली प्रकार तनाव, मानसिक कष्ट, व्याधायें आदि सब 'अहम्' देखना, अनुभव करना और आचरण करना ही के कारण हैं और जहां 'अहम्' है वहां हम सहज मुक्ति का मार्ग है । यह मुक्ति, राग, विराग और हो नहीं सकते। हम जितने सहज होते जाते हैं, सब प्रकार की कालगति से है । जीवन की सही जीवन उतना ही मुक्त होकर मृत्यु पर विजित क्रियान्विति सही ढंग से देखने और समझने में है। होना है, निज के स्वभाव में आना है।.
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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