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मन-वचन-कर्म के द्वारा चरितार्थ करते हुए उन्होंने लिए इंगलैंड के सामने हाथ पसारता है । और कहा:---'लोगों को जन्म देने वाली, पाल-पोस कर तो और सुई जैसी तुच्छ चीज के लिए वह विदेबड़ा करने वाली माता तो माता है ही, मगर अपने शियों का मुह ताकता है । इसका क्या कारण है ? पेट में से पानी निकालने वाली, अपने उदर में से उन्होंने यह अनुभव किया कि जब तक परतंत्रता पानी निकाल कर पिलाने वाली, अपने उदर में की शृखलानों को तोड़ने के लिए देश तैयार नहीं से अन्न निकाल कर देने वाली, स्वयं वस्त्रहीन होगा तब तक उसके जीवन में पड़ने वाली हीनरहकर हमें वस्त्र देने वाली और माता की भी ग्रंथियों का निर्ग्रन्थन भी सम्भव नहीं हो पाएगा। माता अपनी मातृभूमि है ।" मातृभूमि की महिमा अतः अपनी सीमा में अपने समस्त प्रोज और तेज का गुणगान करगे हुए अपने शिष्यों को कहा करते के साथ उन्होंने अपने अनुयायियों को उनके परावथे कि मातृभूमि के प्रति कर्तव्य निर्धारित करना लम्बन के लिए धिक्कारा और फटकारा । पारतंत्र्य गृहस्थ के लिए ही नहीं, साधु के लिए भी आवश्यक की कलुषित छाया से मुक्त होने के लिए उन्होंने है। मातृभूमि तो गृहस्थों और सन्यासियों दोनों समाज का आहवान किया। उन्होंने स्पष्ट शब्दों के ही लिए समान रूप से बन्दनीय है। उन्होंने इस में कह दिया कि "स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लि मान्यता का घोर विरोध किया जो साधुत्व को उत्सर्ग की आवश्यकता होती है। स्वतन्त्रता का देश की सीमा से परे खींच ले जाती है। यह तथा- पथ फूलों से नहीं, काँटों से आकीर्ण है।" इस कथित उदारता या मानवेतर आदर्श उन्हें कभी प्रकार त्याग, स्वावलम्बन, पुरुषार्थ और बलिदान स्वीकार्य नहीं हुआ। राष्ट्रभक्ति को दुनियांदारी का पाठ पढ़ाकर उन्होंने जन-मानस में स्वातंत्र्य भाव का अंग मानने वालों को लताड़ते हुए उन्होंने कहा
की रमणीय लहर पैदा कर दी। कि ऐसे लोग यात्मधर्म की प्रोट में राष्ट्र के उपकार से विमुख रहते हैं। राष्ट्रधर्म की उपेक्षा प्राचार्य जवाहर ने अपने अनुयायियों में करके राष्ट्र का कोई धर्म, चाहे वह आत्मधर्म ही ___ राष्ट्रीयता के सभी संघटक तत्वों के प्रति ममत्व क्यों न हो, अपनी पूर्णता का दावा नहीं कर का भाव जगाने का अथक प्रयत्न किया । स्वासकता।
धीनता आंदोलन के सभी जीवंत प्रतीकों के प्रति
लोगों में श्रद्धा का भाव पैदा किया । चर्खे को वे भारत की भूमि से उन्हें जितना प्रेम था, भारतवर्ष का सुदर्शन चक्र मानते थे । उनकी उतना ही आदर उनके मन में यहाँ की संस्कृति के दृष्टि में भारत के दैन्य रूपी दैत्य को ध्वस्त करने प्रति भी था । वे भारत को विश्व का प्राध्यात्मिक का यह अमोघ शस्त्र था । हिन्दी को उन्होंने गुरु मानते थे । ऐसे महान् देश की पराधीन जनता भारतीय संस्कृति की प्रात्मा के रूप में देखा । में उन्होंने आध्यात्मिक और सांस्कृतिक दरिद्रता उन्होंने यह भी अनुभव किया कि लोगों में के उभरते हुए लक्षण देखे । उन्होंने देखा कि 'जो भारतीयता के इन आधारभूत तत्वों के प्रति भारत अखिल विश्व का गुरु था और सबको अपेक्षित अपनत्व और सम्मान नहीं है और वे सभ्यता सिखाने वाला था, आज वह इतना दीन- आचार विचार से पाश्चात्य बनते जा रहे हैं । ऐसे हीन हो गया है कि आध्यात्मिक विद्या की पुस्तकें लोगों के बारे में उन्होंने कहा-"आश्चर्य है कि जर्मनी से मँगाता है । युद्ध सामग्री के लिए अमेरिका उन्हें राष्ट्र भाषा, राष्ट्रीय पोशाक और स्वदेशी के प्रति याचक बनता है, नीति-धर्म की पुस्तकों के खान-पान तक पसन्द नही आता । ऐसे लोग
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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