Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1976
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 275
________________ देते है । महावीर का दिया हुआ वह उपदेश भी सुरेन्द्रों ने उनका नाम महावीर रखा। जिनेन्द्र यहां दिया जा रहा है। इस प्रकार पउमचरियं महावीर को वंदन, संथुति एवं प्रदक्षिणा कर के के दूसरे समुदेशक में भगवान महावीर का चरित्र देव वापस लौटे और तीनों लोको के गुरु जैसे और उपदेश वरिणत है, उसे प्राकृत ग्रंथपरिषद से भगवान् को पुनः माता के समीप रखा । इन्द्र के प्रकाशित पउमचरियं सानुवाद ग्रंथ से उद्धृत करके द्वारा दिये हुए आहार से तथा अगूठे पर किमे यहां प्रकाशित कर रहा हूं। गये अमृत के लेप से चूसने से धीरे धीरे बाल भाव का त्याग करके जिन तीस वर्ष की अवस्था मान्यवर नाथूरामजी प्रेमी ने पउमचरियं । को प्राकृत जैन कथा साहित्य का सब से प्राचीन ग्रंथ बतलाते हुए लिखा है कि “इस ग्रंथ में ऐसी कोई बात संसार के दोषों को जानने वाले और इसी नहीं मिली जिस पर दिगम्बर-श्वेताम्बर में से किसी लिये विरक्त लौकान्तिक देवताओं से घिरे हुए एक संप्रदाय की कोई गहरी छाप हो । अर्थात् यह जिनेश्वर महावीर ने एक दिन दीक्षा ली । बाद में ग्रंथ उस समय का है जब जैन धर्म अविभक्त था। ध्यानोपयोग में लीन उन्हें आठ कर्मों का क्षय होने इसमें कुछ बातें ऐसी हैं, जो श्वे० परंपरा के पर समग्र जगत को प्रकाशित करने वाला केवलविरुद्ध जाती हैं और कुछ दिगम्बर परंपरा के ज्ञान उत्पन्न हआ। उनका रुधिर दूध के समान विरुद्ध । इससे मालूम होता है यह तीसरी, दोनों के । श्वेत था। उनकी देह मैल और पसीने से रहित बीच की धारा थी।" थी, उसमें से सुगंध आरही थी, सामुद्रिक शास्त्र में महावीर चरित वणित सुन्दर लक्षणों से वह युक्त थी तथा अत्यन्त निर्मल थी। उनकी आँखें स्पन्द के रहित थीं', इस भरतक्षेत्र में गुण एवं समृद्धि से सम्पन्न उनके नाखून और बाल अवस्थित तथा स्निग्ध थे कुण्डग्राम नाम का नगर था। वहां पर राजाओं और उनके चारों ओर सौ योजन तक का प्रदेश में वृषभ के समान उत्तम सिद्धार्थ नामक राजा संक्रामक रोगों से शून्य रहता था । जहां पर राज्य करता था। उसकी अनेक गुणों से युक्त तथा · उनके चरण पड़ते थे वहाँ सहस्र दल कमल निर्मित रूपवती त्रिशला नाम की भार्या थी। पूर्व जन्म हो जाता था, वृक्ष फलों के भार से झुक से जाते पूर्ण होने पर जिन (महावीर) उसके गर्भ में आए। थे, पृथ्वी धान्य से परिपूर्ण और जमीन दर्पण के आसनकम्प द्वारा जिनेश्वर का जन्म हुआ है ऐसा समान स्वच्छ हो जाती थी। अर्ध मागधी वाणी जानकर और इसीलिये आनन्द से पुलकित होकर उनके मुख से निकलती थी और धूल व गर्द से सब देव चल पड़े । कुण्डग्राम नगर में आकर उन्होंने रहित दिशाएँ शरत्काल की भाँति निर्मल हो जाती सुगंधित जल की वृष्टि की । बाद में जिनवरेन्द्र थीं। जहां जिनेन्द्र महावीर ठहरे थे वहाँ रत्न को लेकर वे देव मेरु पर्वत के शिखर पर गये। खचित सिंहासन, योजन पर्यन्त जिसका मनोहर और पाण्डुकम्बल शिला के ऊपर मणियों से देदीप्य- शब्द सुनाई दे ऐसी दुन्दुभि तथा देवों द्वारा की मान सिंहासन पर भगवान् को स्थापित कर के जाने वाली पुष्पवृष्टि होती थी। इस प्रकार आठ क्षीरोदधि के जल से भरे हुए कलशों से उनका प्रतिहारियों से समन्वित मुनिवृषभ और जिनन्द्रों अभिषेक करने लगे। मेरु पर्वत को अपने अगूठे से में भी सूर्य सदृश भगवान् महावीर भव्यजन रूपी क्रीडामात्र में उन्होंने हिला दिया था इसीलिये कमलों को विकसित करते हुए विचरते थे। शिष्य 2-52 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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