Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1976
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 276
________________ संमुदाय, गणधर एवं सकल संध के साथ विहार करते हुए तथा ज्ञानादि अतिशयों की विभूति से युक्त महावीर एक बार विपुलाचल के ऊपर पधारे । भगवान् महावीर के उपदेश द्रव्य दो प्रकार के हैं । जीव और प्रजीव रूप भी ये दो भेद जानने योग्य हैं। जीव के भी दो भेद हैं। ( 1 ) सिद्ध ( 2 ) संसारी । जो सिद्ध जीव होते हैं उनका सुख अनन्त, अनुपम, अक्षय, अमल अनन्त एवं किसी भी प्रकार की बाधा से सदा मुक्त अर्थात् व्यावाध होता है । संसारी जीवों के स एवं स्थावर रूप से दो भेद जानने चाहिए । इन दोनों के भी प्रयाप्त और अप्रयाप्त रूप दो दो भेद हैं । पृथ्वी, पानी, आग, पवन और वनस्पति-ये पांच स्थावर जीव कहे गये हैं । द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के त्रस जीव हैं । उनके भी दो भेद हैं- 1 संज्ञी अर्थात् मन वाले और ( 2 ) श्रसंज्ञी अर्थात् मन रहित । जो अजीव द्रव्य है वह धर्म अधर्म आदि भेद से अनेक प्रकार का है । भव्य जीव मोक्ष में जाते हैं, जबकि अभव्य जीव मोक्ष में न जाकर इस संसार में भटकते ही रहते हैं । मिथ्यात्व, मन वचन - काय की प्रवृत्ति रूप योग तथा लेश्या सहित कपाय इन कारणों से जीव सर्वदा अशुभ कर्म का बन्ध करता है । सम्यक्त्व के साथ ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप से तथा मन-वचन कार्य को अशुभ प्रवृति से दूर रखने वाला जीव अनन्त पुण्य उपार्जित करता है। कर्म के संक्षेप में आठ भेद कहे गए हैं। अपने अपने परिणाम के अनुसार जीव कर्म का बन्ध करते हैं या मुक्त होते हैं । विषय सुख में मूढ़ संसारी जीव को जो क्षणिक सुख प्रतीत होता है वह तो वस्तुतः अनेक वद्य दुःख रूप ही है । पाप कर्म करने वाले जीव को नरक लोक में एक निमिष जितने भी समय में सुख नहीं मिलता । तिर्यंच जीव, मारपीट, बंधन महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International एवं तिरस्कार आदि दोषों द्वारा दुःख का अनुभव करते हैं । संयोग और वियोग में, लोभ में और लाभ में, राग में और द्वेष में मनुष्य को शारीरिक एवं मानसिक दुःख होता है । अल्पऋद्धि वाले देवों को महद्धिक सुर समूह को देख कर जो दुःख होता है उससे भी भारी दुःख तो उन्हें ( च्यवन काल में देवगति च्युत से होकर दूसरी गति में जन्म लेते समय अर्थात् मरण काल में ) होता है । ऐसे घोर संसार रूपी चौराहे में खड़ा हुआ जीव दूसरे जीवों की अपेक्षा तुलना में दु:ख से मुक्त होने पर ही मानव योनि प्राप्त करता है । मनुष्यत्व प्राप्त करने के बावजूद भी मन्द पुण्य के कारण जीव शबर आदि कुलों में उत्पन्न होता है; उत्तम कुलों में जीव की उत्पति बड़ी कठिनाई से होती है । उत्तम कुल में उत्पन्न होने पर भी मनुष्य बौना, बहरा, अन्धा, गूंगा, ठूंठा और लूलालंगड़ा होता है । जीव बड़ी मुश्किल से पाँचों इन्द्रियों से नीरोग तथा सुरूप होता है । सभी सुन्दर वस्तुओं की प्राप्ति होने पर भी अपुण्यशाली मूर्ख मनुष्य को लोभ एवं मोहवश धर्म में बुद्धि हीं नहीं होती । धर्म विषयक बुद्धि उत्पन्न होने पर भी कुधर्म रूपी क्रीड़ा गृहों में वह घुमाया जाता है, जिससे जिनभावित धर्म को वह प्राप्त नहीं करता । मनुष्यत्व प्राप्त करके जिसका चित्त सर्वदा धर्म में नहीं लगा रहता उस मनुष्य के करतल में श्राया हुआ अमृत भी मानो नष्ट हो गया । यहाँ पर ऐसे भी कितने ही धीर पुरुष हुए थे जिन्होंने भावपूर्वक चारित्र ग्रहण किया था और अपने चारित्र में अखण्डित रह कर अब उत्तम स्थान (मोक्ष) में जाकर ठहरे हैं । दूसरे भी ऐसे धीर पुरुष हैं जिन्होंने 'जिन' पद की ( तीर्थकर नाम कर्म की ) प्राप्ति के लिये कारणभूत बीस स्थानक की आराधना करके तीनों लोकों के लिए श्राश्वकारी ऐसा अनन्त सुख प्राप्त किया है । दूसरे ऐसे भी हैं जो घोर तप करके संसार को अल्प कर For Private & Personal Use Only 2-53 www.jainelibrary.org

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