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वरतो (वरणों) भऊ (बहु) निर्वतन (पूर्ण) होने पर है पता नहीं क्यों लगभग चौदह अन्य कुषाणमूर्तियों दान किया, यहाँ कोध्यिा गण जो आगे चलकर पर इसका हि० या हेमन्त के रूप में उल्लेख है। काष्ठासंघ बना उसका उल्लेख है। इसके अतिरिक्त गीता में भी श्रीकृष्ण ने "मासां मार्गशीर्षोऽहम्" प्राचार्यसुयश एवं शिशिन शिष्य का भी नामांकन कहा है जो इसी ऋतु में पड़ता है । है । संस्कृत भाषा की दृष्टि से विभक्तियों के प्रयोग में अशुद्धता है किन्तु अनुस्वार [ • ] का प्रयोग इस प्रकार इस जिन प्रतिमा के पृष्ठांकन संवत,
बायीं तरफ स्त्री प्रतिमा (जो आगे चलकर यक्षों
का स्थान निश्चित हुआ) पद्मनिधि का निरूपण, यदि लेख पर अंकित संवत को हम कनिष्क
तीन पुष्पों का अंकन, कलात्मक मुख मंडल, तत्काकी तिथि के साथ बैठाये तो ७८+ ६-८६ ई०
लीन देशीय एवं विदेशी (गान्धर) वेशभूषा आदि २ की इस प्रतिमा की स्थापना तिथि प्राती है । पता
दृष्टियों से परिपूर्ण तो है ही। शालवृक्ष के अंकन नहीं शासक का उल्लेख क्यों नहीं है।
के कारण जो भगवान् महावीर का कैवल्यवृक्ष है हेमन्त मास का उल्लेख भी कम रोचक नहीं उसकी रोचक बिम्ब सहज ही सिद्ध होती है।
दहेज के चहेतों से
.कु. ऊषा किरण
जबलपुर ( म० प्र०) तुम ! दहेज के भीषण-दानव
लक्ष्मी को ही बुला रहे हो। करते हो नित भक्षण धन का,
या सुकुमारी बालाओं को हां हां जन का।
पल पल हंस तुम रुला रहे हो तुम मोटे गद्दों से टिककर
जिस दिन रे ! वर की कीमत बता रहे हो,
ये सुप्त क्वांरियां और मुद्रा के कलख से
अपनी परिभाषा समझेगी, कन्याओं के जनक,
उस दिन पाम असमर्थ जनों की
तेरी अपनी बेटियाँ बनी बनाई प्रतिष्ठा के घर
तुझे दहेज की क र सामिध में ढहा रहे हो।
हंस हंस कर होंमेगी। तुम पुत्रों के हित कन्या को नहीं
रे दहेज के भीषण दानव ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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