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देते हैं, और दो या तीन भव तक इस संसार में अनासक्त होते हैं वे अपने कर्मों का नाश करके, परिभ्रमरण करके फिर अनुपम निर्वाण प्राप्त करते मुक्ति प्राप्त करते हैं। जो ज्ञानावरणीय आदि हैं । वे लोग जो उत्तम तप करते हैं तथा अपने आठ प्रकार के कर्म से रहित होते हैं वे श्रमणों में अपने बुद्धिबल के अनुसार आराधना कर के मृत्यु सिंह जैसे पराक्रमी ही उस अक्षय अनन्त अव्यावाध, प्राप्त करते हैं वे उत्तम अनुत्तर विमानों में अहमिन्द्र .. शिव और परमसुखमय मोक्ष प्राप्त करते हैं। रूप में उत्पन्न होते है। वहां से च्युत होने पर वे चार गति रूपी महासमुद्र में कर्म से जकड़े हुए बलदेव एवं चक्रवर्ती के भोग व ऐश्वर्य का चिरकाल जीव इधर-उधर टकराया करते हैं। जिन धर्म तक उपभोग करके और बाद में धर्म का आचरण रूपी नौका के सिवाय कोई इस समुद्र से पार उन्हें करके सिद्ध होते हैं। दूसरे ऐसे भी होते हैं जो नहीं उतार सकता। संसार रूपी प्रतिभीषण घोर परीषहों से पराजित होकर संयम से भ्रष्ट ग्रीष्मकाल में दुःख रूपी गर्मी से तीव्र वेदना का होते हैं। और पुनः गृहस्थ के अणुव्रतों का अनुभव करने वाला समग्र जीवलोक जिनवचनरूपी पालन करते हैं। कई लोग ऐसे भी होते हैं जो मेघ के शीतल जल से शान्ति का अनुभव जिनवरेन्द्र के दर्शन मात्र से संतोष मानते हैं। वे करता है । स्वप्न में भी प्रत्याख्यान (त्याग) और उसके
वीर स्तुति प्राप्त होने वाले सुख का अनुभव नहीं करते। मिथ्यात्व से जिनकी मति मोहित हो गयी है, चारि- "हे केवलज्ञान रूपी किरणों से सूर्य के वहीन, व्रतरहित एवं विषयरस में आसक्त मनुप्य समान ! यह सारा जीवलोक मोहरूपी गहरे अन्धप्रति घोर संग्राम जैसे ग्रहारम्भ में प्रवेश करते हैं। कार में सोया हया है। अकेले आपने ही इसे दूसरे मनुष्य खेती प्रादि व्यवस्था में अनेक प्रकार निर्मल प्रकाश से प्रकाशित किया है । संसार रूपी के जन्तुओं का विनाश करके तीव्र एवं अत्यन्त दुःख समुद्र में शोकरूपी बड़ी-बड़ी लहरें टकरा रही हैं, से परिपूर्ण घोर नरक में जाते हैं। छलकपट हे महाशय, भव्यजनरूपी व्यापारियों को नौका युक्त एवं कुटिल स्वभाव वाले, झूठे मापतोल . से के समान प्राप ही पार उतारने वाले हैं । हे नाथ ! धन्धा रोजगार करने वाले तथा धर्म में प्रश्रद्धा संयोग, वियोग एवं शोकरूपी तरुनों से व्याप्त रखने वाले तिर्यंच योनि में उत्पन्न होते हैं । जो : जन्ममरणरूपी संसार के गहन वन के कुमार्ग में सरल स्वभाव के और धर्म का आचरण करने वाले नष्ट होने वाले जंतुनों के लिए आप ही सार्थवाहहैं, जिनके कषाय मन्द हैं और जो स्वभाव से भद्र तुल्य उत्पन्न हुए हैं। बहुत देर तक सहस्र कोटि तथा मध्यम गुणों से युक्त हैं वे मनुष्य जन्म प्राप्त वर्षों तक भी आपके वास्तविक गुणों का यदि कोई करते हैं । जो अगुव्रत और महाव्रत का पालन संकीर्तन करे तो भी उनकी गिनती करने में हे करते हैं और बालक की भाँति समझे-बूझे बिना नाथ ! कौन समर्थ हो सकता है ? बाल तप करते हैं वे अपने-अपने परिणाम के अनुसार देवलोकों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार स्तुति करने के पश्चात् देवेन्द्र तथा जो ज्ञान दर्शन एवं चारित्र में तथा परस्पर करण दूसरे भी चारों निकायों के देव भावपूर्वक प्रणाम एवं योग में शुद्ध होते हैं और जो देह में भी करके अपने अपने योग्य स्थानों में जा बैठे ।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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