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छन्द परिवर्तन का नियम कवि को मान्य नहीं। तक सीमित है, किन्तु ये इसके लिये घातक भी बने हेमचन्द्र तथा विश्वनाथ ने अपने लक्षणों में कुछ हैं। कवि की सन्तुलनहीनता ने उसकी कवित्वशक्ति ऐसे काव्यों का उल्लेख किया है, जिनकी रचना का गला घोंट दिया है । सूरचन्द्र की काव्य प्रतिभा आद्यन्त एक ही छन्द में हुई थी । स्थूलभद्र गुणमाला प्रशंसनीय है, परन्तु उसने अधिकतर उसका अनाउन्हीं की परम्परा में है।
वश्यक क्षय किया है। सारा काव्य अप्रस्तुतों के स्थूलभद्र गुणमाला का महत्व इसके वर्णनों असह्य भार से दबा पड़ा है।
चारित्र
श्री राजमल जैन बेगस्या' जयपुर भोगों की लालसा, मृगतृष्णा विशाल है, भटक गया इसमें तो, जल का अकाल है । शीघ्रातिशीघ्र निकल जा इस प्रदेश से, चारित्र वन में जा, निर्मल जहां ताल है ।।
चारित्र पारस है, छूले वो सोना है, चारित्र खो दे तो रोना ही रोना है। धन जाये, तन जाये कुछ भी नहीं खोता है,
चारित्र जाये तो खोना ही खोना है । अग्नि से ताप पृथक होता न कभी कहीं, चारित्रवान से चारित्र कभी नहीं। अग्नि जले कहीं चाहे, चारित्र पले कहीं, अपने स्वरूप को दोनों छले नहीं ।।
मरिण रत्न बिकते हैं, सदा ऊंची कीमत पर, किन्तु परीक्षायें होती हैं, पग पग पर । हीरे रत्न मणियों को जौहरी ही परखें हैं, चारित्र पालक तो रहते हैं हर दृग पर ।।
सात
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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