________________
2-48
और चिता पर चढ़ जाता है....
डा० विजय जैन 'आनन्द' शहपुरा ( म० प्र० )
निशा काल में दीपक जलता
पर मानव जलता - जलता, खुद ही तो जल जाता है, पर इस लम्बे जीवन का वह पाप नहीं धो पाता है । और चिता पर चढ़ जाता है || मयखाने में साकी भूमें, हाथ में तेरे प्याला घूमे ।
साकी इसमें मधुरस, पीने को बैठा हूं बरबस । किन्तु ौंठ तक जाते-जाते, जाम छलक जाता है । और चिता पर चढ़ जाता है ||
अरमां के बनाये महलों को, क्या खूब सजाया ख्वाबों में । जल उठी चिता जो महलों की खुद राख हो गया लपटों में । लपटों में जलते-जलते वह स्वयं नहीं जल पाता है । और चिता पर चढ़ जाता है ||
गीत गाये दुनियाँ के जिससे, कहलाता तू दीवाना | अपना कफन बांध के सर में, फिर से बन जा मस्ताना । अर्थी पर चढ़ने वाले का, सब यहीं पड़ा रह जाता है । और चिता पर चढ़ जाता है ||
लोभ मोह की ज्वाला में, क्या खूब तपाया अपने तन को । अपराध किये जो लाखों तूने, ग्रहसास करादे अपने मन को । पश्चाताप नहीं कर पाता, आँसू बहा न पाता है । और चिता पर चढ़ जाता है ||
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
www.jainelibrary.org