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तथा अटल व्यक्ति थे। उन्होंने जीवन के किसी भी त्याग कर मध्यम मार्ग का अनुसरण किया जो न क्षेत्र में हिंसा के साथ कोई समझौता नहीं किया। गृहस्थों जैसा सरल था और न साधुओं जैसा उनकी अहिंसा वीरों की अहिंसा हैं । चन्द्रगुप्त मौर्य कठिन । गया नगर के बाहर एक पीपल के वृक्ष के सम्प्रति, सम्राट खारबेल, सेनापति चामुंडराय, नीचे ध्यान में बैठे हुये उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ महाराज कुमारपाल आदि अनेक जैन वीर हुये जिससे वे बुद्ध (ज्ञानी) और तथागत (आदर्शरूप) जिन्होंने बड़ी वीरता से शत्रुओं के छक्के छुड़ाये कहलाये । उन्होंने सांसारिक लोगों को दुःख और देश की रक्षा की।
निवारणार्थ उचित तथा आवश्वक उपदेश दिया। गौतम बुद्ध :
उनके जीवन और सिद्धान्तों पर जैन धर्म का प्रभाव आपका जन्म बिहार प्रान्त में नेपाल की सीमा
स्पष्ट लक्षित होता है। हां दार्शनिक और तात्विक के समीप स्थित कपिलवस्तु के शाक्य वंशी राजा
उलझनों में उन्होंने उलझना नहीं चाहा और ऐसे शुद्धोदन की रानी महाभग्या के गर्भ से हुआ था।
प्रश्नों को अनुपयोगी समझते थे। जब रानी प्रसव के लिये अपने पीहर जा रहीं थीं
गौतम बुद्ध अहिंसा के प्रचारक थे । उनका तब मार्ग में ही लुम्बनी वन में इनका जन्म हो
स्वभाव माता जैसा ममतापूर्ण था । वे पर दुःख गया था। इनका बचपन का नाम सिद्धार्थ था।
से इतने विकल-निकल हो जाते थे कि सिद्धान्तों को ये बचपन से ही गम्भीर और विचारशील थे तथा
ढीला करने में भी संकोच न करते थे। उन्होंने ज्योतिषियों ने साधु बन जाने की आशंका प्रकट
अगुलिमाल को अहिंसा से जीता, दीन दुःखियों की थी। अतः पिता ने सभी साधन महलों में ही
को गले लगाया। वे यज्ञादि के भी विरोधी थे। एकत्रित कर दिये थे और सिद्धार्थ को बाहर नहीं पर दसरों के द्वारा तैयार किये गये मांस-भक्षण को जाने दिया जाता था। यौवनावस्था पाने पर पिता
बौद्धधर्म में उचित माना गया। इसी का यह फल ने यशोधरा नाम की एक अत्यन्त सुन्दरी राज
हैं कि अहिंसा के अनुयायी कहे जाने वाले श्रीलंका, कुमारी के साथ इनका विवाह कर दिया और
बर्मा, चीन, जापान प्रादि सभी देश मांसाहारी हैं । इनके राहुल नाम का एक पुत्र भी हुआ । अब
कुछ समय पूर्व श्रीलंका की सरकार ने भारत से पिता ने इनको राज्य देने का विचार किया तथा
कुछ कसाई मांगे थे। क्योंकि वहाँ के लोग मांस प्रजा और राज्य की स्थिति देखने के विचार से खाते तो हैं पर तैयार करने वाले चाहिये । यह इनको बाहर घमने फिरने की स्वतंत्रता मिल गई। सीबिडम्वना है कि हिसका मांस खावे। फिर अपने सारथी छन्दक के साथ रथ में नगर भ्रमण सर्व प्राणि समानता और सर्व समभाव को जाते समय आपको, रोगी, वृद्ध और मृतक को कम या देखकर संसार से वैराग्य हो गया जिससे वे किसी से बिना कुछ कहे रात को चुपचाग महल से डा० ल्यूमान ने महावीर और बुद्ध की तुलना निकलकर वन में चले गये और सन्यासी बन गये। करते हुये लिखा था कि “महावीर साधु ही नहीं
प्रारम्भ में वे भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा तपस्वी भी थे। किन्तु बुद्ध को ज्ञान प्राप्त होने के जैन साधु पिहिताश्रव के शिष्य बने । मज्झिम पर वे तपस्वी न रहे, मात्र साधु रह गये । बुद्ध निकाय आदि बौद्धग्रन्थों से स्पष्ट है कि प्रारम्भ में ने अपना पुरुषार्थ जीवन धर्म पर लगाया। इस उन्होंने जो तपश्चरण का मार्ग अपनाया वह जैन प्रकार महावीर का उद्देश्य प्रात्मधर्म हुआ तो बुद्ध मार्ग था । पर वह उनको कठिन लगा । अतः उसे का लोकधर्म ।"
2-23 __ महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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