Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1976
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 262
________________ अपनश साहित्य में महावीर डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल, जयपुर । अपभ्रंश भाषा और साहित्य के अध्ययन एवं स्वयं कवि की विद्वत्ता का मापदण्ड माना जाने अनुसंधान के प्रति भारतीय एवं विदेशी विद्वान् गत लगा । और पुष्पदन्त जैसे धाकड़ एवं प्रतिभाशाली 40 वर्षों से बराबर प्रयत्नशील हैं। उसकी चर्चित महाकवि को भी महापुराण के अतिरिक्त 'जसहरएवं अचित कृतियों को प्रकाश में लाने का प्रयास चरिउ' एवं 'णायकुमारचरिउ' जैसे काव्यों की जारी है। विद्वानों के इस सतत् प्रयत्न के फल- रचना करनी पड़ी। पुष्पदन्त के पश्चात् तो अपस्वरूप इस भाषा के साहित्य को पुनः लोकप्रियता भ्रश के प्रायः सभी कवियों ने 'चरिउ' संज्ञक काव्य प्राप्त होने लगी है । अपभ्रंश भाषा की कृतियों की लिखे । ऐसे कवियों में वीर, नयनन्दि, धनपाल, पांडुलिपियों का प्रमुख क्षेत्र राजस्थान, आगरा एवं यशःकीर्ति, श्रीधर एवं रइबू के नाम विशेषत: देहली के जैन शास्त्र भण्डार हैं । इस भाषा की उल्लेखनीय हैं । महाकवि तुलसीदास ने रामचरित्र सबसे अधिक पाण्डुलिपियां जयपुर, नागौर, अजमेर, मानस का नाम भी सम्भवतः इसी लोकप्रियता के भरतपुर, ब्यावर एवं कामां के शास्त्रभण्डारों में आधार पर रखा दिखता है । लेकिन चरिउ संज्ञक उपलब्ध होती हैं । अकेले जयपुर के शास्त्रभण्डारों रचनाओं के अतिरिक्त कथा संज्ञक, रास संज्ञक, में अपभ्रश की 80 प्रतिशत कृतियां संगृहीत हैं। अनुप्रेक्षा, चउबीसी, फागु, छप्पय, चउपई, चर्चरी इन पाण्डुलिपियों के आधार पर यह सहज ही में एवं गीत संज्ञक रचनायें भी अच्छी संख्या में उपकहा जा सकता है कि अपभ्रंश भाषा साहित्य क्षेत्र लब्ध होती है । में 8 वीं शताब्दी से 17 वीं शताब्दी तक समाहत होती रही । जैन कवियों ने इस भाषा को सबसे देश के विभिन्न प्रकाशित एवं अप्रकाशित सूची अधिक प्रश्रय दिया तथा सन्तों से अधिक गृहस्थों पत्रों के आधार पर डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री ने ने इस भाषा में काव्य रचना में विशेष रुचि ली। अपनी पुस्तक "अपभ्रंश भाषा और साहित्य की महाकवि स्वयम्भू, पुष्पदन्त, वीर, नयनन्दि, धन- शोध प्रवृत्तियां" में 85 कवियों की 195 अपभ्रंश पाल एवं रइधू जैसे सभी धुरन्धर विद्वान् गृहस्थ थे कृतियों के नाम गिनाये हैं । हो सकता है अभी सन्त नहीं । इसलिये अपभ्रश सदैव सामान्य जनों राजस्थान के अनवलोकित शास्त्रभण्डारों में की भाषा रही । इन कवियों ने काव्य की सभी अपभ्रश की और भी कृतियां उपलब्ध हो जावें । धाराओं में अपनी कृतियों को निबद्ध करके इसे मेरे स्वयं के विचार से यह संख्या 200 तक पहुंच जनप्रिय बनाने में और भी अधिक योगदान किया। सकती है। उपलब्ध कृतियों में महाकवि स्वयम्भू इसमें चरिउ संज्ञक कृतियां सबसे अधिक संख्या प्रथम एवं श्रीचन्द (चन्द्रप्रभचरिउ र० का० सं० में निबद्ध की गयीं । इस दृष्टि से महाकवि स्वयम्भू 1793) अन्तिम कवि माने गये हैं । ये सभी ने 'पउमचरिउ' एवं 'रिट्ठणेमिचरिउ' की रचना कृतियां भाषा, साहित्य, संस्कृति एवं सामाजिक करके अपने आगे वाले कवियों के लिए काव्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं जिनके गहन अध्ययन से इस रचना का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इसके पश्चात् दिशा में कितने ही नवीन तथ्यों का उद्घाटन हो तो अपभ्रंश भाषा में 'चरिउ' संज्ञक काव्य निर्माण सकता है। महावीर जयन्ती स्मारिका 76 2-41 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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