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भगवान् महावीर के जीवन एवं उनके सिद्धांतों एवं अपरान्ह का समय था । कैवल्य होने के पश्चात् से सम्बन्धित अपभ्रंश भाषा में निबद्ध विभिन्न इन्द्रभूति गौतम अपने पांचसौ शिष्यों के साथ कृतियां उपलब्ध होती हैं। 9 वीं-10 वीं शताब्दि प्रवज्या लेकर उनके शिष्य बन गये । पुष्पदन्त ने में होने वाले महाकवि पुष्पदना प्रथम कवि हैं जिन्होंने इस घटना को स्वयं गौतम गणधर के मुख से राजा अपने महापुराण की 95 वी संधि से 102 वीं श्रेणिक को सम्बोधित करते हुये कहलाया है। संधि तक महावीर का जीवन चरित्र निबद्ध किया पुष्पदन्त ने महावीर के संध की विस्तृत संख्या है। इसी भाग को डॉ० हीरालाल जैन ने गिनायी है जिसके अनुसार वायुभूति, अग्निभूति 'वीरजिरिंगद चरिउ' नाम से सुसम्पादित करके आदि उनके ग्यारह गणधर मुनि थे। 300 शिष्य भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित कराया है। इसमें समस्त पूवों एवं अंगों के ज्ञाता थे। 900 शिष्य महावीर के पूर्व भव का पुरुरवा नाम वाले शबर के सर्वावधि ज्ञानधारी थे तथा 1300 मुनि मोह और जीवन से वर्णन प्रारम्भ होता है। पुरुरवा शबर लोभ के त्यागी थे। इनके अतिरिक्त पांच मुनि ऋषभदेव के पुत्र सम्राट भरत के पुत्र मरीचि के मनःपर्यय ज्ञानी एवं सात केवलज्ञानी थे। चार सौ रूप में उत्पन्न हुआ और वही मरीचि का जीव मुनि श्रेष्ठवादी थे। 36000 आर्यिकाएं और एक कितने ही भव धारण करने के पश्चात् रानी लाख गृहस्थ एवं तीन लाख श्राविकायें थी। देव त्रिशला का पुत्र महावीर हुा । पुष्पदन्त ने देवियों की संख्या बहुत बड़ी थी । तिर्यञ्च भी उनके महावीर के अन्य पूर्व भवों का अपने काव्य में कोई साथ रहने में सुख एवं शांति का अनुभव वर्णन नहीं किया है।
करते थे।
भगवान महावीर अन्त में पावापुर आ गये । एक ही संधि में कवि ने उनके गर्भ, जन्म और वहां से उन्होंने दो दिन तक कोई बिहार नहीं किया तप कल्याण (मुनि दीक्षा) तक कर दिया है। और कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के 69 वीं संधि में मुनि महावीर का सर्व प्रथम कूल दिन रात्रि के अन्तिम भाग में जब जब चन्द्रमा ग्राम में वहां के शासक कूल के यहां आहार होने
स्वाति नक्षत्र में स्थित था, तब उन्हें निर्वाण की का उल्लेख किया है । महावीर विहार करते हुये
प्राप्ति हो गयी । इसके पश्चात् पुष्पदन्त ने उज्जयिनी पहुचे और वहां के श्मशान में ध्यानस्थ
भगवान महावीर की शिष्य परम्परा का भी उल्लेख होकर प्रतिमा योग में स्थित हो गये। इसके
किया है । इनमें तीन केवली, पांच श्रु तकेवली, 11 पश्चात् उसी रात्रि में वहां के रुद्र ने उन पर घोर
प्राचार्य, ग्यारह अंगों तथा दश पूर्वो के ज्ञाता, उपसर्ग किया लेकिन महावीर अपनी तपः साधना
पांच प्राचार्य ग्यारह अंगधारी तथा चार प्राचार्य में लीन रहे और अन्त में रुद्र को महावीर से क्षमा
सारभूत अाचारांग के धारी हुये । पुष्पदन्त ने याचना करनी पड़ी। इसके पश्चात् चन्दना का अन्त में प्राचार्य वीरसेन एवं जिनसेन के नामों प्रसंग पाता है जिसमें कौशाम्बी में उसके द्वारा का भी उल्लेख किया है। महावीर को आहार देने की चर्चा की गई है। 12 वर्ष तक घोर तपस्या के पश्चात् जृम्भिक 12 वीं शताब्दि में होने वाले विवुध श्रीधर ग्राम के निकट ऋजुकूला नदी के विशाल उद्यान में दूसरे अपभ्रंश कवि हैं । जिन्होंने वड्डमाण चरिउ के साल वृक्ष के नीचे स्थित रत्नशिला पर उन्हें नाम से एक स्वतन्त्र काव्य की रचना की। इस कृति कैवल्य हो गया । वैशाख शुक्ल दशमी का दिन की एक मात्र पाण्डुलिपि राजस्थान के दिगम्बर जैन
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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