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का मनोरम समन्वय है। उस जैसा भाषा सौष्ठव के चित्रण में विप्रलम्भ अपने आवेग के कारण तो यहां नहीं मिलता किन्तु इसमें प्रांजलता बराबर करुण रस से बहुत निकट पहुंच जाता है। उसकी बनी रहती है । ह्रासकालीन महाकाव्यों की अन्य व्यथा की व्यञ्जना करुणरसोचित कोमल, स्निग्ध प्रवृत्तियों को प्रायः यथावत् ग्रहण करके भी इन तथा मसृण पदावली के द्वारा की गई है। समासाकवियों ने अपनी भात को अलंकृति तथा क्लिष्टता भाव तथा दैन्यपूर्ण भाषा उसकी कातरता को से आच्छादित नहीं किया।
सहसा प्रतिबिम्बित कर देते हैं। वियोग ने उनके
हृदय को इतना तोड़ दिया है कि उठना, वैठना, स्थूलभद्रगुणमाला की भाषा की मुख्य विशेषता
सोना, चलना प्रादि अनिवार्य कृत्य भी उसके लिये यह है कि वह सदैव भाव के अनुकूल चलती है ।
भार बन गये हैं। काव्य में स्थितियों का वैविध्य अधिक नहीं है, किन्तु उसमें उदात्त गम्भीर तथा भव्य-अभव्य जो इन विषादपुर्ण भावों के विपरीत सूरचन्द्र ने भी भाव हैं, उसकी भाषा उन सबको यथोचित कोश्या की हर्षोत्फुल्लता का चित्रण तदनुरूप भाषा पदावली में व्यक्त करने में समर्थ है । कवि का भाषा में किया है। चिरविरह के पश्चात् प्रिय के आगपर यथेष्ट अधिकार है। इसीलिए वह प्रसंग की मन का समाचार सनकर वेश्या ग्रानन्द से प्राप्लाप्रकृति का उल्लंघन नहीं करती।
वित हो जाती है। उसे मिलने को अधीर कोश्या स्थूलभद्र को देखकर मूछित हई कोश्या की की त्वरा तथा उत्सुकता का वर्णन करने के लिये स्थिति के वर्णन तथा उसकी सखियों की चिन्ता- प्रवाहपूर्ण समामहीन पदावली का प्रयोग किया कुल प्रतिक्रिया में जो भाषा प्रस्तुत हुई है, वह गया है। यह अपने वेगमात्र से उसकी अधीरता को मानसिक विकलता को बिम्बित करती है। कोश्या
मूर्त कर देती है। के मूछित होने पर वे विवाद में डूब जाती हैं, और
कुत्र कुत्रेति जल्पन्ती दधाये धनिकं प्रति । होश में आते ही वे हर्ष से पुलकित हो जाती हैं।।
कोश्या प्रेमवशासंज्ञा वात्याहतेव तूलिका ।। न शृणोतीक्षते नेयं संजानीते न वक्ति च । न स्पृशन्ती भुवा पद्भ्यां निषेधंती निमेषकान् । बद्ध्वास्ते दन्तशकटं वेल्लते नो न चेष्टते ॥ उद्यांती ददृशे कोश्या सखी भिरमरीव सा ।। २/११७
१५/१०६-१०७ उवाच काचिवित्येवं दोषोऽस्याः कोऽपि दृश्यते । शाकिन्या वाथ डाकिन्या यद्वाम्बुस्थलदेवयोः ॥
प्रिय को अाँख भर कर देखने की बलवती
२/११६ स्पृहा है यह, जिसने उसे देवांगना बना दिया है। किंचिदंगमचालीत्सा यावज्जहर्षु रालयः ।
सूरचन्द्र का झुकाव भाषा की सरलता की पद्मिनी तास्तदा स्वालीः स्तं स्वंगेहममोचयत् ॥ तरफ अधिक है। काव्य को सुबोध बनाने के लिये
२/१२३ ही उसने कहीं-कहीं लोक भाषा की संस्कृत छाया स्थूलभद्र के साधुत्व स्वीकार करने पर कोश्या मात्र प्रस्तुत कर दी है, जो संस्कृत भाषा के प्रतिके तरुणहृदय की अभिलाषाए अधूरी रह जाती हैं। कूल है किन्तु लोक में प्रचलित होने के कारण सर्व उसके ऊपर अनभ्र वनपात होता है । उसके बिरह विदित तथा प्रभावपूर्ण है। 'खादितु नाथ धावति
१. वही, ६/१३६-१३८.
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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