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अधिक चित्रण नहीं हुआ है। प्रकृति वर्णन की पति वसन्त के पास जाकर वह लज्जा से लाल हो परम्पराबद्ध प्रणाली से हट कर किसी अभिन्न उठी है. अथवा यह शरत् रूपी हाथी के रक्त से मार्ग की ऊद्भावना करना सूरचन्द्र के लिए सम्भव रंजित वनसिंह की नखराजि है अथवा अटवी नहीं था। उसके प्रकृति चित्रण की विशेषता गणिका अपनी अरुण अंगुलियों से युवकों को सहर्ष यदि इसे विशेषता कहा जाये-यह है कि उसने आमन्त्रित कर रही है। ऋतुओं के न केवल हर संभव तथा कल्पनीय
स्पष्टाटवी वधूटीयं रक्ताम्बरधरा किमु । उपकरण का व्यापक चित्रण किया है अपितु
कि वासावेव सुरभि पति प्राप्यारुणानना ॥ उन में होने वाले पर्यों का भी अनिवार्यतः चित्रण किया है। ये वर्णन कवि की काव्य प्रतिभा
किं वा वनमृगेन्द्रस्य दृश्यते नखरावली ।
शीततुमत्तमातंग भिन्नकुम्भासृजारुणा ॥ को प्रतिष्ठित करने में समर्थ हैं, किन्तु संतुलन तथा अनुपात का उसे विवेक नहीं, इसलिए मात्र विस्तार
किंवाटवीपरण स्त्रीयं स्वकीयांगुलिकालिभिः । के कारण इन में पिष्टपेषण भी हुआ है और पाठक
तरुणानावाहयन्तीव क्रीडितु निजकान्तिके ॥ के धैर्य की विकट परीक्षा भी हुई है। 224 पद्यों
१३ २५-२७ में पावस का सांगोपांग वर्णन करने के पश्चात् कल्पनायें सभी रोचक हैं किन्तु अन्तिम दो कुछ कवि का यह कथन--
दूरारूढ़ प्रतीत होती है। नभोनभस्यमासौ द्वौ वर्षतु रेष भाषितः ।
शरत् का यह हृदय ग्राही वर्णन भी कल्पना की एवमस्य ऋतोः किञ्चित्स्वरूपमुपरिणतम् ॥
आभा से तरलित है। उसके अप्रस्तुतविधान-कौशल पाठक की सहनशीलता पर कितना क्रूर व्यंग्य है। से शरत्काल का हर उपकरण सजीव हो गया है ।
अप्रस्तुत योजना में दक्षता के कारण सरचन्द्र पूनम का चांद स्वर्गंगा में खिला हुआ कमल प्रतीत ने बहुधा प्रकृति का आलंकारिक चित्रण किया है। होता है। उसका कलंक ऐसा लगता है मानों प्रकृति के स्वाभाविक रूप के प्रति उसका ममत्व रोहिणी से रमण करते समय लगी हुई काजल की निश्छल है, किन्तु उसकी कल्पनाशीलता उसे प्रकृति बिन्दिया हो । नील गगन में तारे ऐसे चमक रहे हैं, का संश्लिष्ट चित्र अंकित करने को विवश करती जस इन्द्रनालमारण्या क थाल म रख
की हों, है। सूरचन्द्र के पास कल्पनामों की अपरिमितं अथवा काली धरती पर गिरे हुए तण्डुल हों या निधि है । वह प्रकृति के सामान्य से सामान्य तत्व रजनीलता की कुसुमावली हो । के लिए भी सरलता से आठ दस अप्रस्तुत जुटा
यद्वा वियन्नदीमध्ये पुण्डरीकं चलाचलम् । सकता है। फलतः स्थूलभद्रगुणमाला में प्रकृति
संदृश्यते मधुभृतं मृगसंगमरंगितम् ॥ ११/२७ अधिकतर सहज-अलंकृत रूप से प्रकट हुई है। निस्सन्देह कवि की उर्वरता कल्पना से उसके वर्णन
रोहिण्या रममाणस्य किंवा कज्जलमलगत् । चमत्कृत हो उठे हैं । परन्तु अप्रस्तुतों के बाहुल्य के
किंवा शरीरकाश्र्येण किश्चिच्छायापतत्तनौ ॥११/३९ कारण स्वयं प्रकृति गौण-सी हो गई है।
तमालतालमे व्योम्नि शुभ्रास्तारा दिदीपिरे । वसन्त में चारों ओर टेसू के लाल फूल दिखाई मुक्ता इव हरिद्ररत्नस्थाले कालकेलये ॥ ११/६६ देते हैं । कवि की कल्पना है कि नवोढ़ा वनभूमि कृष्णभूमेरथवा देशे तण्डुलाः पतिता इव । ने विवाह का लाल जोड़ा पहन लिया है अथवा किंवा विभावरीवल्ल्या दृश्यते कुसुमावली ॥११/७०
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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