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मानवता की ज्योति जगादे
श्री अनूपचन्द न्यायतीर्थ,
अपने पथ से भटक गये हम अब हमको
महावीर ! अति वीर ! सुसन्मति ! वर्द्धमान त्रिशला के नन्दन ! पतितोद्धारक परम पूज्य हे ! महामनीषी ! शत शत
वन्दन ||
सन्मार्ग दिखादो | म ० ॥
राग द्वेष से मलिन क्रोध मान माया लोभ कषाय बढ़ी अन्तर में, फैल रहा अज्ञान अन्धेरा ॥
भला बुरा पहिचान सके ना अब विवेक का दीप जलादो | | ० ||
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हुआ मन, ने घेरा ।
जयपुर
सत्य अहिंसा स्याद्वाद ओ, अनेकान्त का गूंजे नारा । साम्य भाव से बने समुज्ज्वल, त्रसित क्षुब्ध जीवन की धारा ॥
आग्रह छोड़ समन्वय करल सबके प्रति सम्मान सिखादो ||म० ॥
रहीं निरन्तर, निश्चित कारण । बढ़े दिन दूना, कष्ट निवारण ||
इच्छाएँ बढ़
यही दुःख का
आशा गर्त्त : कैसे होवे
परिग्रह की ममता को तज दें संग्रह की प्रादत छुड़वादो | म ० ॥
राष्ट्र विरोधी मनोभावना, नहीं हृदय में घर कर जावे । द्वेष ईर्ष्या और कलुषता, को डिगा न
मानवता
पावे ||
अनुशासन कर्त्तव्यनिष्ठता सर्वोपरि हो पाठ पढ़ा दो ||म० ।।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
by Vig
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