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माकर्षणों, सृष्टि की उमंगों, तरङ्गों, कोमल उद्दाम वेग और उसकी पूर्ति का साधन सुन्दर संवेदनाओं और अभिलाषाओं को सामने रखता ललनायें अथवा पुरुष । दूसरी ओर समग्रता की है। उज्जयिनी और अलका की बड़ी-बड़ी अट्रालि- आराधना करने वोला इन वस्तुओं को वैराग्यशील काओं, उद्यानों, दीपिकाओं, पण्यस्थलों, मनोहर भिक्षु की निगाहों से देखता है, उसकी दृष्टि में ये अङ्गनाओं, रास्ते के उद्दाम प्राकृतिक दृश्यों और सब बस्तुयें और मनोभावना बाह्य हैं, शारीरिक हैं, लुभावनी वस्तुओं के ललित वर्णनों के बीच पार्श्व मूर्तिमान हैं, क्षणभंगुर हैं। इन सबके बीच में जो के हृदय में शांति और निरासक्ति की एक अपूर्व प्रमूर्तिक प्रात्मा विद्यमान है वह उसकी खोज आलादमयी धारा है। प्रात्मा में निरन्तर जागरण करता है । काम, क्रोध, मद आदि के आवेश से का कार्य चल रहा है और इस जागरण का फल उस आत्मत्व की उपलब्धि नहीं हो सकती है।
कहा भी हैयह होता है कि उसकी शक्ति से अनुपमेय दिव्य सुखों में लीन धरणेन्द्र जैसे देवों के आसन भी __ मदेन मानेन मनोभवेन क्रोधेन लोभेन ससम्मदेन । कम्पायमान हो जाते हैं । शत्रु को पलायमान होना पराजितानां प्रसभं सुराणां वथैव साम्राज्यरुजा पड़ता है । उसे अपनी भूल मानकर हृदय से क्षमा
परेषाम् ॥ याचना करना पड़ती है। इस प्रकार एक अपूर्व विजय की प्राप्ति होती है। अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग शम्बरासुर काम, क्रोध और मद से युक्त है, शत्र प्रओं का अब नाश हो गया है। जो कुछ भोगना उसकी दृष्टि सरागी है, अत: इन्द्रियप्रत्यक्ष से उसे था, वह भोग लिया अब कुछ भोगना बाकी नहीं जो अनुभव हो रहा है वही उसके लिए लोभनीय रहा, संसार के सारे आकर्षणों का अन्त आ गया अथवा प्रलोभनीय है । जो लोभनीय है वह वस्तु और आत्मा में अपूर्व सुख की धारा बह रही है। उसके लिए राग का कारण है और जो अलोभनीय संसार के सभी प्राणी ऐसी महान् अात्मा के है वह वस्तु उसके द्वेष का कारण है । राग और गुणानुवाद अथवा नाममात्र लेने से भवोच्छेदन की द्वष ये दोनों संसार को छोड़ने के लिए विजित पाशा बाँध रहे हैं। भक्ति के रस का संचार हो करने पड़ते हैं, वीतरागी बनना पड़ता है, निश्छल रहा है। इस प्रकार पार्वाभ्युदय के बाह्य रूप की समाधि की ओर बढ़ना पड़ता है। पार्श्व इसी अपेक्षा उसका प्रान्तरिक रूप करोड़ों गुना अत्यधिक
वीतरागात्मा और निश्छल समाधि की ओर बढ़ महत्व रखता है।
रहे हैं अतः इन्द्रियों के माध्यम से जो कुछ देखा
जा सकता है, अनुभव किया जा सकता है, उसकी शम्बरासुर और पार्श्व का संघर्ष इन्द्रियज्ञान तरफ उनका लक्ष्य नहीं हैं, क्योंकि इन्द्रियों की और प्रतीन्द्रियज्ञान के बीच का संघर्ष है। शास्त्र- विषयों में प्रवृत्ति रागद्वेष की जनक है । वीतरागता कारों ने कहा है कि इन्द्रिय के द्वारा जो जानकारी के पथ के पथिक को इष्टवस्तु के प्रति न राग है प्राप्त होती है वह तुच्छ है, अतीन्द्रियज्ञान से जो और न अनिष्ट वस्तु के प्रति द्वष है । जहां राग जानकारी प्राप्त होती है, वह विपुल है, पूर्ण है। और द्वेष है वहां संसार है । संसार छोड़ने के लिए एक में असमग्रता है, दूसरे में समग्रता है। प्रात्मत्व का सहारा लेना पड़ेगा और अतीन्द्रिय असमग्र को सब कुछ मानने वाला संसार की ऊपरी ज्ञान की उपलब्धि करनी होगी। अतीन्द्रियज्ञान चाकचिक्य में ही रमण करता है, उसे चाहिए जिसके पास है, वही सच्चा योगी है । शिशुपालवध बाह्य प्रकृति का मनोरम वातावरण, काम का में माघ ने नारद को 'अतीन्द्रियज्ञानधि' कहा
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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