________________
लोक में जितनी भी हत्याएं और प्रात्म-हत्याएं नहीं ? उसे अपनी भूल दिख ही नहीं सकती क्योंकि होती हैं, उनमें अधिकांश क्रोधावेश में ही होती क्रोधी, पर में ही भूल देखता है स्वयं में देखने लगे हैं। क्रोध के समान प्रात्मा का कोई दूसरा शत्रु तो क्रोव पायेगा कैसे ? यही कारण है कि आचार्यों नहीं है।
ने क्रोधी को क्रोधान्ध कहा है । क्रोध करने वाले को जिस पर क्रोध प्राता है, क्रोधान्ध व्यक्ति क्या-क्या नहीं कर डालता। वह उसकी ओर ही देखता है, अपनी ओर नहीं सारी दुनिया में मनुष्यों द्वारा जितना भी विनाश देखता । क्रोधी को जिस पर क्रोध पाता है, उसी होता देखा जाता है, उसके मूल में क्रोधादि भाव की गलती दिखाई देती है, अपनी नहीं। चाहे ही देखे जाते हैं। द्वारिका जैसी पूर्ण विकसित और निष्पक्ष विचार करने पर अपनी ही गलती निकले, सम्पन्न नगरी का विनाश द्वीपायन मुनि के क्रोध के पर क्रोधी विचार करता ही कब है ? यही तो उसका कारण ही हना था। क्रोध के कारण सैकड़ों घरअन्धापन है कि उसकी दृष्टि पर की और ही रहती परिवार टूटते देखे जाते हैं। अधिक क्या कहेंहै और वह भी पर में विद्यमान-अविद्यमान दुर्गुणों जगत् में जो कुछ भी बुरा नजर आता है, वह सब की ओर ही । गुणों को वह देख ही नहीं पाता। क्रोधादि विचारों का ही परिणाम है। कहा भी यदि उसे पर के गुण दिखाई दे जावें तो फिर उस है..-- 'क्रोधोदयात् भवति कस्य न कार्यहानिः" पर क्रोध ही क्यों आवे, फिर तो उसके प्रति श्रद्धा क्रोधादि के उदय में किसकी कार्य हानि नहीं होती, उत्पन्न होगी।
अर्थात् सभी की हानि होती ही है। यदि मालिक के स्वयं के पैर से ठोकर खाकर कांच का गिलास टूट जावे तो एकदम चिल्लाकर
क्रोध एक शान्ति भंग करने वाला मनोविकार कहेगा-इधर बीच में गिलास किसने रख दिया ?
है। वह क्रोध करने वाले की मानसिक शान्ति तो उसे गिलास रखने वाले पर क्रोध आयेगा, स्वयं पर
भंग कर ही देता है, साथ ही वातावरण को भी नहीं। वह यह नहीं सोचेगा कि मैं देखकर क्यों
कलुषित और प्रशान्त कर देता है। जिसके प्रति नहीं चला। यदि वही गिलास नौकर के पैर की
क्रोध प्रदर्शन होता है, वह तत्काल अपमान का ठोकर से फूटे तो चिल्लाकर कहेगा-देखकर नहीं
अनुभव करता है । और इस दुःख पर उसकी त्यौरी चलता, अन्धा है। फिर उसे बीच में गिलास
चढ़ जाती है। यह विचार करने वाले बहुत थोड़े रखने वाले पर क्रोध न पाकर, ठोकर देने वाले
__ निकलते हैं कि हम पर जो क्रोध प्रकट किया जा पर आयेगा क्योंकि बीच में गिलास रखा तो रहा है, वह उचित है या अनुचित । स्वयं उसने है। गलती हमेशा नौकर की ही दिखेगी चाहे स्वयं ठोकर दे, चाहे नौकर के पैर
क्रोध का एक खतरनाक रूप बैर है । बैर की ठोकर लगे, चाहे स्वयं गिलास रखे, चाहे दूसरे
क्रोध से भी खतरनाक मनोविकार है । वस्तुतः वह ने रखा हो।
क्रोध का ही एक विकृत रूप है। बैर क्रोध का
आचार या मुरब्बा है। क्रोध के आवेश में हम यदि कोई कह दे कि गिलास को आप ही ने तत्काल बदला लेने की सोचते हैं । सोचते क्या हैं रखा था और ठोकर भी आपने मारी । अब तत्काल बदला लेने लगते हैं । जिसे शत्रु समझते हैं: नौकर को क्यों डांटते हो, तब भी यही बोलेगा क्रोधावेश में उसे भला बुरा कहने लगते हैं, मारने कि इसे उठा लेना चाहिए था। उसने उठाया क्यों लगते हैं पर जब हम तत्काल कोई प्रतिक्रिया
1-134
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org