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द्वारा उत्पन्न) सम्बन्ध है-अथवा तादात्म्य । मोहन ज्ञानं प्रात्मेति मतं बर्तते ज्ञानं विना न आत्मानम्, व डण्डा ये दो पृथक् वस्तुयें हैं, जब मोहन इण्डे तस्मात् ज्ञानात्मा प्रात्मा ज्ञानं वा अन्यद्वा । 27 । को हाथ में लेता है तब वह डण्डे के संयोग अथवा सम्बन्ध से “दण्डी" कहलाने लगता है, जैसा अर्थात्-पारमा (जीव) के बिना ज्ञान नहीं सम्बन्ध मोहन व डण्डे में है, क्या ऐसा ही सम्बन्ध होता इसलिये ज्ञान आत्मा है और आत्मा ज्ञान जीव व ज्ञान में है ? नहीं, जीव व ज्ञान में ऐसा है। प्रत्येक प्रात्मा ज्ञान स्वरूप है अन्तर केवल सम्बन्ध नहीं अपितु जीव व ज्ञान, गुणी व गुण मात्रा का है। ऐसा कोई क्षण नहीं हो सकता है। जैनों के अनुसार गुणी ब गुण पृथक्-पृथक् जब प्रात्मा चैतन्य अथवा ज्ञान शून्य हो जाये, नहीं हैं, गुरण सदैव गुणी में ही पाये जाते हैं, गुणी क्योंकि वस्तु स्वभाव शून्य कदापि नहीं होती और से भिन्न कोई गुण अस्तित्वशील नहीं है । जिस ज्ञान चैतन्य आस्मा का स्वभाव है । प्रकार मिठास, मिष्ठ वस्तु का गुण है, वह (मिठास) किसी भी मिष्ठ वस्तु (शक्कर, गुड़ अथवा
जीव का स्वरूप श्री नेमिचन्द्राचार्य द्वारा मिष्ठान्नादि) में ही प्राप्त होता है, किसी भी
प्रणीत द्रव्यसंग्रह की निम्न गाथा से स्पष्ट मिष्ठ वस्तु से पृथक् मिठास प्राप्त नहीं हो सकता
होता हैअर्थात् “मिष्ठता" मिष्ठान्नादि का स्वभाव है उसी प्रकार ज्ञान जीव का स्वभाव है, जीव से पृथक् “जीव उपयोगमय अमूर्तिकर्ता स्वदेहपरिमाणः ज्ञान की उपलब्धि असम्भव है, अतः ज्ञान जीव भोक्ता संसारस्थ सिद्धः सः विस्रसा ऊर्ध्वगति 121 का औपाधिक गुण न होकर स्वाभाविक गुण है, कथंचित् गुणी व गुण (जीव व ज्ञान) में तादात्म्य अर्थात् जो जीता है, उपयोगमय है, अमूर्तिक सम्बन्ध है।
है, कर्ता भोक्ता है, स्वदेह परिमाण वाला है, संसारस्थ है, सिद्ध होने की शक्ति रखता है तथा
स्वभाव से ऊर्ध्वगति को आने वाला है वही प्रवचनसार में भी कहा गया है
जीव है।
(1) तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा :
ले० डा० नेमिचन्द्र जैन, ज्योतिषाचार्य, पृ० 332 (2) (अ) जैन धर्म लेखक-पं० कैलाशचन्द्र
(ब) नयचक्र : लेखक-माइल्लधवल पृ० प्रस्तावना 22 प्र०-भारतीय ज्ञानपीठ (स) प्रवचनसार-श्री कुन्दकुन्दाचार्य
हिन्दी अनुवाद-पं० परमेष्ठी दासन्यायतीर्थ, गाथा 27. (द) पंचस्तिकाय संग्रह-श्री कुन्दकुन्दाचार्य, प्र० - सोनगढ गा० 12
(क) स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा-गाथा 178-180 (3) क्योंकि जैन दर्शन में प्रात्मा की अनेकता को स्वीकार किया है ।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76.
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