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सन्देशादि ले जाने के कार्य को सम्पन्न करने में दुष्ट पुरुष बुद्धि की उद्धतता से उससे मायायुद्ध असमर्थ है, किन्तु कालिदास यक्ष को कामूक के की याचना करता है। ऐसा व्यक्ति यदि देव भी रूप में चित्रित करते हैं और कामुक व्यक्ति अपनी है तो भी पशु के तुल्य है, जिसे जिनसेन ने उत्कष्ठा के कारण चेतन-अचेतन के विवेक से 'गुरुसुरपशु' कहा है। हीन हो जाते हैं, अतः यक्ष उसी अचेतन मेघ से संसार में लोग वस्तुओं और घटनाओं को याचना करने लगता है। जिनसेन ने आत्मिक अपने-अपने अभिप्राय और सामर्थ्य के अनुसार देखते शक्ति के सामने मेघरूप अचेतन पदार्थ की तुच्छता हैं। शम्बरासुर पार्श्व के तप के अभिप्राय को को पूरी तरह स्वीकार किया है अतः पार्श्वनाथ समझ नहीं पाया। अतः उन्हीं से पूछ बैठता हैउसकी शक्ति को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं मन की अपनी अन्तरात्मा में रखकर वह (ध्यानी करते । भौतिक शक्ति का आश्रय लेकर दूसरे को रूप में प्रसिद्ध) आप कहिए। क्या आप कर्मों के पराभूत करने की चेष्टा करने वाले को जिनसेन नष्ट हो जाने पर सिद्धावस्था को प्राप्त प्रात्मद्रव्य क्षुद्र कहने से नहीं चूकते । कालिदास अचेतन प्रकृति में मन को लगा रहे हैं अथवा (आपके) कष्ट में को भी मनोभावों के सम्पर्क से चेतन बनाने का आलिङ्गन की इच्छा रखने वाली दूरवर्ती प्रिया में कौशल व्यक्त करते हैं, जिनसेन आत्मिक शक्ति के मन लगा रहे हैं' । प्रायः शम्बरासुर यही सोचता सामने जड़ प्रकृति की तुच्छता के यथार्थ को है कि मुनि पार्श्व सुन्दर-सुन्दर स्त्रियां पाने के स्वीकार करने में जरा भी नहीं हिचकते । शम्बर लिए तपस्या कर रहे हैं। अतः वह बार-बार के माध्यम से मेध के रूपों तथा उसके प्रतिफलों दिव्यस्त्रियों की प्राप्ति का प्रलोभन देता हैं । को जिनसेन ने अत्यधिक विस्तार से कहलाया है, अप्सराओं के लोभ से तलवार के द्वारा मृत्यु प्राप्त किन्तु वे सारे रूप, वे सारे फल पार्श्व को निस्सार करना भी वह एक बड़े सौभाग्य की बात मानता दिखाई देते हैं । इस प्रकार पार्श्व का याचक रूप है। इस प्रकार बकवाद को सुनकर भी पार्श्वयोगी नहीं, समर्थ रूप सामने आता है । अचेतन को चेतन चुप ही रहते हैं, ध्यान से किञ्चिन्मात्र भी च्युत मानने का भाव बन्धन का भाव है और मिथ्यापरि- नहीं होते हैं । उस समय उनकी धीरता देखकर यक्ष णति के कारण जीव इस संसार चक्र में भ्रमण को भी आश्चर्य होता है। लेकिन उसके अहं को कर रहा है । अचेतन को अचेतन और चेतन को यह स्वीकार करने में भी कठिनाई होती है और चेतन मानने का विवेक जिसके अन्दर जाग्रत होता प्रत्युत्तर न देने के कारण वह पार्श्व को स्त्रीम्मन्य है, वह रत्नत्रय मार्ग के द्वारा मोक्ष के सम्मुख मानता है10 । यक्ष को एक बार भ्रम होता है कि
चकि पार्श्व के कान उसके द्वारा कहे गए विशद अनुपमेय है, दुर्जेय है, इस बात का विचार न कर अभिप्राय वाले समीचीन भाषण को नहीं सुनते हैं ५. माया युद्ध मुनिपमुपमाक्षीण को दुर्जयोऽयं
इत्योत्सुक्यादपरिगणयन् गुह्यकस्तं ययाचे ॥ पाा . १।१६. ६. वही १११८ ७. पाश्र्वा. १।१२. ८. पा .११२७, २६, ४/२५,२४. ६. पा . ११२६. १०. पार्वा. १२३२, ४।१३ . महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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