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(5) पंचेन्द्रिय-जिनके स्पर्शन, रसना, घ्राण, मुक्तावस्था
चक्षु तथा कर्णेन्द्रिय होती हैं वे जीव आत्मवादी दर्शन होने के कारण जैनों के पंचेन्द्रिय होते हैं।
चिन्तन का लक्ष्य मोक्ष है, वही अवस्था जीव की
पूर्णता की अवस्था है। मोक्ष का अर्थ जीव का मनुष्य गति, देव गति एवं नरक गति के सभी प्रभाव अथवा विनाश नहीं है अपितु शुद्ध स्वरूप जीव पंचेन्द्रिय होते हैं। पंचेन्द्रिय के भी दो भेद में अपनी स्वतन्त्र सत्ता लिये हुये स्थित रहना ही है-संज्ञी पंचेन्द्रिय एवं असंज्ञी पंचेन्द्रिय । 'मन मोक्ष है। सांसारिक अवस्था में तो कर्मबन्धन के सहित' पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी पंचेन्द्रिय कहलाता है कारण जीव विभाव रूप में रहता है किन्तु जब और 'मनरहित पंचेद्रिय' जीव असंही पंचेन्द्रिय पुरुषार्थ द्वारा कर्मों का क्षय कर देता है तब जन्म कहलाते हैं।
मरण के चक्र से मुक्त हो जीव स्व-भाव में स्थित हो
जाता है और वही उसकी चरम परिणति है ।22 इस प्रकार जैन-दर्शन में जीवद्रव्य के अन्तर्गत संक्षेप में जैन-दर्शन जीव का चैतन्य ज्ञान केवल मानवजाति का ही नहीं अपितु पशु-पक्षी, स्वरूप अनेकत्व, स्वदेह परिमाणत्व, कर्तृत्व, कीट पंतगों, पेड पौधों सूक्ष्मकायिक से स्थूलकायिक भोक्तृत्व, सांसारिक दशा की अनिवार्यता, जीव जीवों तक समस्त जीवों का वर्णन किया गया है। को सिद्धत्व शक्ति एवं प्रभुत्व शक्ति युक्त मानता है। (22) पंचास्तिकाय संग्रह गा० 28-29
युगकी चाल
.कुवर प्रेमिल, हर युग
जयपुर आहिस्ता-आहिस्ता आता है। एक नई समस्या लाता है तो एक छीन ले जाता है । जैसे-धन-धन करते मेंहदी के बीजों को सन-सन करती हवा अलग करती---- बिखेर देती है। फिर, वही हवा पानी ला-लाकर पनपाती, बड़ा बनाती है यही चाल चलती है निरन्तर प्रकृति भी दीवानी कहीं बनाती है पतझर तो कहीं मधुमास निखरता है ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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