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सर्वप्रथम हम धनबल को लेते हैं । जैन समाज का स्थान भारत की समृद्ध जातियों में है । उसमें बड़े-बड़ े उद्योगपति हैं । साधारण जनता का जीवन स्तर भी अपेक्षाकृत ऊंचा है । किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि वह अपने धन का उपयोग भी ठीक रास्ते पर कर रही है । दरिद्र बहिन भाइयों की सहायता, विद्याप्रचार, साहित्य निर्माण अथवा आध्यात्मिक उत्थान के लिए जो धन खर्च होता है हम उसे सदुपयोग कह सकते हैं । इसके विपरीत मिथ्या प्रदर्शन, परस्पर प्राक्षेप - प्रत्याक्षेप, लड़ाई-झगड़े तथा भूठे अहंकार के पोषण में जो व्यय किया जाता है वह धन का दुरुपयोग है ।
इन प्रदर्शनों का सबसे बड़ा कुप्रभाव यह हो रहा है कि धर्म संस्था का लक्ष्य त्याग से हटकर परिग्रह की ओर जा रहा है । जो साधु जितना बाह्य आडंबर रच सकता है, वह उतना ही ऊंचा समझा जाने लगा है । जिग पर्वो की श्राराधना तपस्या तथा श्रात्म-चिंतन द्वारा की जाती थी, उनमें उत्तरोत्तर मिथ्या आडंबर की वृद्धि हो रही है । बाह्य प्रतिष्ठा का प्राकर्षरण बढ़ रहा है और उसने धर्म की आत्मा को ढक लिया है ।
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सामाजिक शक्ति का दूसरा रूप जनबल है । संगठित जनशक्ति बहुत बड़ी ताकत होती है किन्तु हमें यह सोचना है कि धर्म संस्था इस शक्ति का संग्रह किसलिए करती है धन के समान संगठन का भी मूल्य उसके उपयोग पर निर्भर है । लोक सेबक जिस संगठन का उपयोग दूसरों की सेवा तथा सुख वृद्धि के लिए करता है, डाकू तथा अत्याचारी शासक उसी का उपयोग दूसरों को लूटने के लिए करता है । इस दृष्टि से संगठनों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। पहला रूप प्राक्रामक संगठनों का है। सेना तथा डाकुनों के गिरोह इसी लक्ष्य को सामने रखकर संगठित होते हैं। गिरोह के सदस्यों में परस्पर सद्भावना
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होती है । किन्तु उसके द्वारा जो सामूहिक शक्ति प्राप्त होती है, उसका लक्ष्य दूसरे का उत्पीडन होता है । वर्तमान युग में व्यापारी भी इस प्रकार का संगठन कर रहे हैं । जिसके फलस्वरूप वस्तुनों का मूल्य उत्तरोत्तर बढाते चले जाते हैं । साधारण जनता बिलखती रह जाती है । गजदूर तथा कारीगर अपनी मांगें पूरी कराने के लिए संघर्ष करना चाहते हैं और उसके लिए संगठित होते हैं। धर्म संस्था का लक्ष्य उन सबसे भिन्न प्रकार का है । वहां दो साधक प्राध्यात्मिक उन्नति करना चाहते हैं और परस्पर सहायता के लिए संगठित होते हैं । साधु अपना सारा समय आत्मसाधना में लगाना चाहता है । श्रावक उसकी शारीरिक आवश्यकताओं का ध्यान रखता है । दूसरी ओर साधु श्रावक की धार्मिक चेतना को जाग्रत रखता है । दोनों मिलकर विश्व कल्याण के मार्ग पर ग्रसर होते हैं ।
इसके विपरीत यदि वे दूसरों पर आक्रमण, अहंकार पूर्ति या प्रतिस्पर्द्धा के लिये संगठित होते हैं तो आक्रामक या हिंसक बन जाते हैं । ऐसी स्थिति में वह संगठन धर्म के स्थान पर राजनीतिक अथवा सैनिक रूप लेता है ।
परस्पर आक्रमण में शक्ति का जो अपव्यय होता है यदि उसे बचाकर सदुपयोग किया जा सके तो उससे दोनों पक्षों को बहुत बड़ा लाभ हो सकता है। दोनों ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि कर सकते हैं । प्रात्मकल्याण के साथ समाज को भी समुन्नत बना सकते हैं ।
विद्या या ज्ञान आत्मविकास का बहुत बड़ा साधन है । किन्तु अहंकार से प्रभिभूत होने पर बही राग-द्वेष और कालुष्य का पोषक बन जाता है । धर्माचार्यों में परस्पर जो शास्त्रार्थ हुए उनका इतिहास हमारे सामने है । प्रतिवादी को चुप करने
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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