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सिद्ध : “सिद्ध” कहने का तात्पर्य है—समस्त कर्मादि से मुक्त होना । जीव को "सिद्ध" कहने का अभिप्राय है कि जीव में समस्त कर्मादि से मुक्त होने की शक्ति है— अर्थात् प्रत्येक जीव अपने कर्म बन्धन का क्षय कर "सिद्ध" अवस्था प्राप्त कर सकता है । 13 जैन दर्शन प्राणिमात्र को सिद्ध (मुक्त) बनने का अधिकार देता है, जैन- दार्शनिक जीव के नैसर्गिक अनन्त सामथ्र्य में गंभीर विश्वास करते हैं ।
जीव के स्वरूप पर विचार करने के पश्चात् जीव के सन्दर्भ में कुछ और भी जिज्ञासायें उत्पन्न होती हैं यथा - जीव एक है अथवा अनेक, स्वयं ही अपना प्रभु है अथवा किसी अन्य सत्ता पर श्राश्रित है ? आदि ।
जीव की अनेकता जैन दर्शन में जीव की अनेकता को स्वीकार किया गया है । 14 ग्रानुभविक स्तर पर हमें सुख-दुःख, जन्म-मरण, रोगशोक, वैभवादि विभिन्नताओं का अनुभव होता है, यह विभिन्नता जीव की अनेकता को सिद्ध करती है, यदि वस्तुतः एक ही जीव का अस्तित्व होता तो उस जीव के दृष्टिगोचर अनेक प्रतिरूपों में से एक प्रतिरूप को मोक्ष प्राप्त होते ही समस्त प्रतिरूपों को मोक्ष प्राप्त हो गया होता। एक ही जीव के अनेकों प्रतिरूपों में रूप, कार्य, रुचि, आदि की अपेक्षा विभिन्नता क्यों है ? इन सब तथ्यों को ध्यान में
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
रखते हुये जीवों की अनेकता की मान्यता बहुत समीचीन है ।
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जीव की प्रभुत्व शक्ति - जैन दर्शन में जब जीव को स्वतन्त्र द्रव्य माना गया है तो यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि तब क्या वह अपने सुख-दुःख, जन्म-मरण, मोक्ष आदि के लिये किसी पराश्रित है अथवा इन सब सन्दर्भों में भी वह पूर्ण स्वतन्त्र है ? इसका तर्क संगत समाधान होगा कि जब जीव स्वतन्त्र सत्ता है तब क्यों अपने सुख-दुखादि के लिये किसी अन्य सत्ता पर आश्रित रहे । जैनों की भी यही मान्यता है, उनके अनुसार जीव अपने समस्त कर्म-कर्मफल, ज्ञान, मोक्षादि के लिये पूर्ण - रूपेरण स्वतन्त्र है । जीव स्वयं ही प्रभु प्रर्थात् स्वामी है । जीव का बन्धन एवं मुक्ति किसी की कृपा अथवा रोष का परिणाम नहीं है अपितु स्वयं के कर्तृव्य का परिणाम है । प्रभुत्व शक्ति से युक्त जीव सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान व सम्यक्चारित्र के द्वारा चार घातिकर्मों को नष्ट करके जब अनन्त चतुष्टय युक्त होता हुआ अर्हन्तदशा को प्राप्त होता है तब उसमें प्रभुत्व शक्ति का पूर्ण विकास होता है और जब वह शेष चार प्रघाती कर्मों को भी नष्ट करके सिद्ध-मुक्त हो जाता है तब वह साक्षात् प्रभु ही हो जाता है | 15
(13) अर्हत् प्रवचन, प्रस्तावना पृ० 9 (14) जैन धर्म पृ० 86
(15) (अ) पंचास्तिकाय संग्रह गा० 27
(ब)
जैन धर्म पृ० 81
( स )
नयचक्र पृ० 64
तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, पृ० 364
जीव के भेद - मूलतः जीव का मौलिक स्वरूप एक-सा है किन्तु कर्मों की अपेक्षा स्थूल रूप से जीवों के दो भेद हैं ( 1 ) संसारी और मुक्त 116
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