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निज स्वभाव न होते हुये भी कर्मवश जीव छोटे-बड़े शरीर (देह) के अनुसार संकोच और में क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषाय उत्पन्न विस्तार शक्ति से देह के परिमाण वाला होता है । होती हैं, ये कषायें चैतन्य में ही उत्पन्न हो सकती (समुद्घात की स्थिति के अलावा) तत्वार्थ सूत्र हैं, जड़ पदार्थ में नहीं, इस कारण अशुद्ध निश्चय- (516) में इसकी तुलना प्रज्वलित दीपक से की नय से जीव इन कषायों आदि का करने वाला है। गई है.-"प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत्" जो एक
समान रहकर भी जिस छोटे या बड़े स्थान अथवा क्रोध, मान, माया आदि कषायों के करने से
कक्ष में रखा होता है, उसके अन्दर के पूर्ण स्थान कर्म का बंध जीव के साथ होता है, कर्मों के उदय ।
को प्रकाशित करता है। से ही जीव देहधारी होता है । उस देह के माध्यम से जीव अनेक प्रकार की क्रिया करता है-जैसे
प्रकार की क्रिया करता है जैसे आनुभविक स्तर पर भी जीव को अपनी देह -भवनादि निर्माण कार्य, भ्रमणादि क्रिया, चलना- में होने वाले सुख-दुःख का ही अनुभव होता. देह से फिरना, उठना-बैठना, इन सब क्रियाओं का करने बाहर होने वाले सुख-दुःख का अनुभव नहीं होता। वाला जीव ही है । परन्तु ये सब क्रियायें शरीर तथा अतः जीव स्वदेह परिमाण ही है।11 कर्म के माध्यम से ही होती हैं, इसलिये इन क्रियानों का कर्ता जीव को केवल व्यवहार नय से
__किन्तु उपर्युक्त कथन कर्म संयुक्त जीव ही माना जाता है।
(व्यवहार नय) की अपेक्षा से है क्योंकि पुद्गल जो कर्ता है वह भोक्ता अवश्य होगा । कार्य को
कर देह का योग पुद्गल कर्मों के कारण है। जब करने वाला जीव (चेतन) ही है अतः उसका परि- पुद्गल कर्मों का नितान्त अभाव होगा तब पुद्गल णाम भोगने वाला भी वही जीव होगा। व्यवहार देह का योग अथवा साहचर्य किसी भी अपेक्षा से दृष्टि से जीव अपने कर्मों के फल का भोक्ता है और संभव नहीं है, अतः शुद्ध जीव का परिमाण कैसा निश्चय से वह अपने चेतन भावों का ही भोक्ता
है ? इसके लिये जैन मान्यता है कि जीवकी अन्तिम है।10 वस्तुतः जीव के कर्ता एवं भोक्ता होने के
देह की अन्तिम अवगाहना के परिमारण से किचित कारण कोई भी परोक्ष शक्ति जीव के लिये किसी न्यून जीव के प्रदेश रहते हैं। भी प्रकार का कार्य नहीं करती।
__ संसाररूप : कहने का तात्पर्य यह है कि (लोक __ स्वदेह परिमारण : कर्तृत्व-भोक्तृत्व के बारे का) प्रत्येक जीव या तो संसारी रह चुका है अथवा में विचार करने के पश्चात् जीव के परिमाण के संसारी है, अर्थात् कोई भी जीव ऐसा नहीं है जो बारे में प्रश्न उठता है। क्या जीव का निश्चित संसारी न रहा हो, मुक्त जीव भी कभी संसारी परिमाण है ? जैन दर्शन में जीव स्वदेह परिमारण अवश्य था, जीव सांसारिक दशा भोग कर ही मुक्त माना गया है। जो आकार देह का है वही आकार होता है। कोई जीव ऐसा नहीं है जो सदा मुक्त उस देह में व्याप्त जीव का है। कर्मानुसार प्राप्त (बिना प्रयत्नों के, अनादि काल से मुक्त) हो।12
(9) द्रव्य संग्रह-गा० 8 (10) अर्हत् प्रवचन-ले० पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ द्रव्यसंग्रह गा० १ (11) (अ) द्रव्य संग्रह गा० 10 (ब) जैन धर्म पृ० 82 (स) कार्तिकेयानुप्रेक्षा पृ० 81
(द) नयचक्र पृ० 64 (12) अर्हत्प्रवचन प्रस्तावना पृ० 8 1-164
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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