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___ जीव : व्यवहार नय से जो तीन काल में अर्थात्-जिसमें न कोई रस है, न कोई रूप इन्द्रिय, बल-आयु और श्वासोच्छ्वास इन चार है और न किसी प्रकार की गंध है अतएव जो प्राणों से जीता है वह जीव है और निश्चय नय अव्यक्त है, शब्द रूप भी नहीं है, किसी भौतिक से जिसमें चेतना है वही जीव है ।
चिह्न से भी जिसे नहीं जाना जा सकता और न
जिसका कोई निर्दिष्ट आकार ही है उस चैतन्यगुण उपयोगमय-देखने ब जानने की शक्ति को विशिष्ट द्रव्य को जीव कहते हैं। उपयोग कहते हैं । तत्वार्थसूत्र (2/8) के अनुसार
किन्तु व्यवहार नय से, क्योंकि जीव कर्म उपयोग जीव का लक्षण है। उपयोग दो प्रकार बन्धनों में बंधा हना है (कर्म पुद्गल है, मूर्तिक है) का है (1) दर्शनोपयोग एवं (2) ज्ञानोपयोग। कर्म बंधन के कारण वह देहधारी हो रहा है, वस्तु की सत्ता मात्र के ज्ञान का नाम “दर्शन" देह मलिक हैं अतः संसारी जीव को मूर्तिक कहा जा है। जब वस्तु का बोध होने लगता है कि यह सकता है
। क्या है ? तब वह "ज्ञान" कहलाता है । दर्शन
कर्ता-भोक्ता : किसी भी प्रकार के कार्य निराकार एवं ज्ञान साकार होता है।
करने वाले को कर्त्ता कहा जाता है । और उन
कार्यों के परिणाम भोगने वाले को भोक्ता कहा अमूर्तिक-वे पदार्थ मूर्तिक कहलाते हैं जिनमें
जाता है । यहां जीव के कर्त्तापन को तीन रूप में रूप, रस, गंध एवं स्पर्श गुण हों, जिनमें ये गुण
समझा जा सकता है। नहीं हैं वे पदार्थ प्रमूर्तिक कहलाते हैं। सामान्य रूप से जो वस्त इन्द्रियों से जानी जा सके वह (1) शुद्ध निश्चय नय वस्तु मूर्तिक' कहलाती है। जीव में रूप, रस, गंध (2) अशुद्ध निश्चय नय और एवं स्पर्श का अभाव है तथा वह इन्द्रियातीत (3) व्यवहार नय । है अतः वह प्रमूर्तिक है। प्राचार्य कुन्दकुन्द के रागद्वेष आदि भाव जीव के निज भाव नहीं अनुसार
हैं, जीव ज्ञान और दर्शन से रागद्वेष के बिना
ही सब वस्तुओं को जानने वाला है, यही जीव का "अरस अरूपमगन्धमव्यक्त चेतनागुणमशब्दम् शुद्ध स्वभाव है और शुद्ध निश्चय नय से जीव ऐसे जानीह्यलिंगग्रहणं जीवमनिर्दिष्टसंस्थानम् ।1721" शुद्धभावों का कर्ता है ।
(4) वस्तु के स्वरूप का कथन जैन-दर्शन में 'नय शैली' मुख्यतः निश्चयनय और व्यवहारनय के
माध्यम से किया गया है । निश्चयनय वस्तु के शुद्ध स्वभाव का कथन करने वाली शैली है और व्यवहारनय वस्तु के अशुद्ध (किसी अन्य वस्तु के संयोग से बना) रूप का कथन करने वाली
शैली है। (5) पंचास्तिकाय संग्रह-गा. 30 (6) द्रव्य संग्रह-बाबू सूरजभानु वकील की टीका गा० 16 (1) सिद्धान्तसार संग्रह-नरेन्द्र सेनाचार्य पृ० 112 अध्याय 5 (8) द्रव्य संग्रह-गा०
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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