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सुख अपरिमित हो, कभी न समाप्त होने वाला। प्रश्न हो सकता है कि परम्परा में आकंठ इस सबके साथ वह धार्मिक भी रहना चाहता है। डूबे रहने से एकाएक आत्म-ज्ञान की समझ समाज में प्रतिष्ठित भी । इस सबके लिए उसने दो कैसे जागृत हो सकती है ? व्यापार-वाणिज्य को रास्ते अपनाकर देख लिए। त्याग का और संग्रह अचानक छोड़ देने से देश की अर्थ-व्यवस्था का का मार्ग । हजारों वर्षों से वह दान करता आ रहा क्या होगा ? अथवा किसी एक या दो व्यक्तियों है, करोड़ों का उसने संग्रह भी किया है। किन्तु के अपरिग्रही हो जाने से शोषण तो समाप्त नहीं छोड़ने और बटोरने की इस आपाधापी में उसने होगा ? प्रश्नों की इस भीड़ में महावीर की वाणी जीवन को जिया नहीं। हमेशा उसका कर्तापन, हमें संबल प्रदान करती है । अहं सिर उठाकर खड़ा रहा है। इसीलिए उसकी
जैनधर्म को कितना ही निवृत्तिमूलक कहा अन्य उपलब्धियां बौनी रह गयीं। वह जमाखोर, पूंजीपति पाखण्डी न जाने किन-किन नामों से जाना
जाय, किन्तु वह प्रवृत्तिमार्ग से अलग नहीं। उसमें जाता रहा है। अतः अब ये दोनों रास्ते बदलने
केवल वैराग्य की बात नहीं है। समाज के उत्थान होंगे।
की भी व्यवस्था है । स्थानांग सूत्र में दस प्रकार के जिन धर्मों का विवेचन है वे गृहस्थ के सामाजिक
दायित्वों को ही पूरा करते हैं । अणुव्रतों का पालन सही मार्ग खोजने में महावीर का चिन्तन बहुत बिना समाज के सम्भव नहीं है । श्रावक जिन गुणों उपयोगी है। उन्होंने अहिंसा से अपरिग्रह तक का मार्ग का विकास करता है, उनकी अभिव्यक्ति समाज में प्रशस्त किया। उनकी पहली शर्त है कि तुम अपना ही होती है। अतः महावीर ने अपरिग्रही होने की गन्तव्य निश्चित करो। बनावटीपन के रास्ते पर प्रक्रिया में समाज के अस्तित्व को निरस्त नहीं चलना है तो स्वप्न में जीने के अनेक ढंग हैं । और किया है। यदि बाहर-भीतर एकसा रहना है तो प्रात्मा और शरीर की सही पहिचान कर लो। आत्म-ज्ञान गृहस्थ जीवन में रहते हुए हिंसा, परिग्रह आदि जितना बढ़ता जायेगा, उतने तुम अहिंसक होते से बचा नहीं जा सकता, यह ठीक है । किन्तु महाजानोगे। जगत् के प्राणियों के अस्तित्व को अपने वीर का कहना है कि श्रावक अपनी दृष्टि को सही जैसा स्वीकारने से तुम उनके साथ झूठ नहीं बोल रखे। जो काम वह करे, उसके परिणामों सकते । कपट नहीं कर सकते । शरीर से स्वामित्व से भली-भांति परिचित हो। आवश्यकता की मिटते ही चोरी नहीं की जा सकती। क्योंकि उसे सही पहिचान हो । जीवन-यापन के लिए तुम्हारी आत्मा के विकास के लिए किसी परायी किन वस्तुओं की आवश्यकता है, उनको प्राप्त वस्तु की अपेक्षा नहीं है। सत्य और अस्तेय को करने के क्या साधन हैं तथा उनके उपभोग से जीने वाला व्यक्ति परिग्रह में प्रवृत्त ही नहीं हो दूसरों के हित का कितना नुकसान है आदि बातों सकता है। किसके लिए वस्तुओं का संग्रह ? को विचार कर वह परिग्रह करने में प्रयुक्त हो तो आत्मा निर्भयी है। पूर्ण है। सुखी है। फिर इससे कम से कम कर्मों का बन्ध उसे होगा। परिग्रह का क्या महत्त्व ? यह तो शरीर के ममत्व श्रावक के बारह व्रत एवं ग्यारह प्रतिमाएं आदि के त्याग के साथ ही विसर्जित हो गया। यह है का पालन गृहस्थ को इसी निस्पृही वृत्ति का महावीर की दृष्टि में अपरिग्रह का महत्त्व । इसी अभ्यास कराता है। इसी से उसके आत्मज्ञान की के लिए है--अणुव्रतों और महाव्रतों की साधना। समझ विकसित होती है।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76"
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