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सच्चा प्राप्त मान कर उन पर श्रद्धा रखते हुए करते हुए दूसरे धर्मों का निषेध न करके उन्हें गौण उनकी वाणी को सरस्वती माता कहते हैं। निग्रंथ कह देता है तब सापेक्ष होने से सम्यक् नय होता वीतरागी गुरुओं को अपना गुरु मानते हैं, कपोल- है और जब एक धर्म को ग्रहण कर अन्य धर्मों . कल्पित परंपराओं से दूर रहते हैं, सम्यग्दर्शन से का सर्वथा निषेध कर देता है । तब मिथ्या नय पवित्र हो जाते हैं, वे हमेशा शरीर संसार के दुःखों दुर्नय या कुनय कहलाता है जैसे द्रव्यार्थिक नय को जन्म मरण का मूल कारण मानकर उससे कहता है वस्तु नित्य है पर्यायार्थिक नय कहता है निर्मम होने का पुरुषार्थ करते हैं। उनकी दृष्टि कि अनित्य है। ये दोनों नय परस्पर में सापेक्ष अंतर्मुखी हो जाती है। वे सदैव देहरूपी देवालय होने से सम्यक् हैं और परस्पर निरपेक्ष होने से में विराजमान भगवान् आत्मा को चिंतामणि मिथ्या हैं। सदृश मानकर उसको प्राप्त करने का पुरुषार्थ फरते हैं । उस पुरुषार्थ का नाम ही सम्यग्दर्शन, निश्चय नय से प्रत्येक जीवात्मा अनादिकाल सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्र है। अंतरात्मा जीव से शुद्ध है सिद्धों के सदृश है, चैतन्य स्वरूप है, सम्यदृष्टि होते हुए सम्यक्ज्ञानी होते हैं और अनंत ज्ञानादि से सहित है, अनंतगुणों का पुज है सम्यक्चारित्र को अपनी शक्ति के अनुसार अणुव्रत अविनाशी है और परम आनंदमय है। व्यवहार या महाव्रत रूप ग्रहण करके उनका अनुष्ठान करते नय से यही आत्मा अनादि पर्यायों से सहित हो हुए क्रम से परमात्मा बन जाते हैं।
रहा है तथा जब रत्नत्रय रूप पुरुषार्थ कर्मों का
नाश कर देता है तब सिद्ध बन जाता है। यह परमात्मा पूर्ण सुखी है। चार घातिया कर्मों निश्चय नय शक्ति को बतला देता है तब व्यवहार से रहित अनंत चतुष्टय से सहित जन्म जरा मरण नय उसको प्रकट करने का प्रयत्न करता है। आदि अठारह दोषों से रहित अहंत भगवान अथवा पाठों कर्मों से रहित लोकशिखर पर विराजमान जो सब तरह से आत्मा को बंधा हुआ संसारी सिद्ध भगवान् परमात्मा हैं ।
अशुद्ध ही समझेगा तो उसको मुक्त और शुद्ध होने
का प्रयत्न कैसे करेगा । अतः निश्चय नय से प्रात्मा प्रमारण और नय
को शुद्ध समझना चाहिए। वस्तु के स्वरूप को ठीक से समझने के लिए जैन सिद्धांत में प्रमाण और नय माने गये हैं। यह आत्मा चिंतामणि रत्न है । जो कुछ भी प्रत्येक वस्तु अनंत धर्मात्मक है। अस्ति, नास्ति; आप चिंतवन करेंगे आपको मिल जायेगा। आप चाहें नित्य, अनित्य; एक, अनेक आदि अनेकों धर्म दुर्व्यसन, पाप रूपी विचारों से, क्रियाओं से नरक कहलाते हैं । ऐसी अनंतधर्मा वस्तु के प्रत्यक्ष या निगोदावास को प्राप्त करलें, चाहें तो धर्म के चिंतन परोक्ष रूप से अथवा सर्व रूप से या क्षयोपशम से, शुभक्रियाओं से स्वर्ग को प्राप्त करलें और चाहें अस्पष्ट ज्ञान से जानने वाला ज्ञान प्रमाण कहलाता तो आत्मा को शुद्ध समझकर तथा उसी शुद्धात्मा है । यह ज्ञान प्रात्मा का गुण है । आत्मा में ही पाया का ध्यान करके कर्म कलंक से रहित अकलंक शुद्ध जाता है । ऐसे ही प्रमाण के द्वारा जानी हुई वस्तु भगवान् बन जावें। हां इतना अवश्य है कि शुद्ध के एक-एक अंश को अर्थात् धर्म को जानने वाला आत्मा का ध्यान वीतरागी मुनि ही कर सकते नय कहलाता है । यह वस्तु के एक धर्म को ग्रहण हैं, परिग्रहों से घिरे हुए मनुष्य उसकी भावना महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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