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गई हैं।
के अपने बन कर आये हैं । यही नहीं वैदिक परम्परा वहां जाति, रंग, लिंग आदि के आधार पर कोई में जो पात्र घृणित और वीभत्स दृष्टि से चित्रित छोटा-बड़ा नहीं है। वहां बड़प्पन की कसौटी है किये गये हैं वे भी यहां उचित सम्मान के अधिकारी उसका आचरण । भगवान् महावीर ने पुरुष के बने हैं। इसका कारण शायद यह रहा है कि जैन समान स्त्री को सामाजिक अधिकार ही नहीं दिये साहित्यकार अनार्य भावनाओं को किसी प्रकार की वरन् आध्यात्मिक अधिकार भी दिये । दासी बनी ठेस नहीं पहुंचाना चाहते थे। यही कारण है कि हुई चन्दना से उन्होंने भिक्षा ही ग्रहण नहीं की वासुदेव के शत्रुओं को भी प्रतिवासुदेव का उच्च वरन् उसे दीक्षित कर छत्तीस हजार साध्वियों का पद किया गया है । नाग-यज्ञ आदि को भी तीर्थंकरों नेतृत्व सौंपा। इसी प्रकार अपने साधु संघ में उन्होंने का रक्षक माना है और उन्हें देवालयों में स्थान शूद्रकुलोत्पन्न हरिकेशी और मेतार्य को सम्मिलित दिया है। छन्दों में तो इतना वैविध्य है कि सभी कर सामाजिक और आध्यात्मिक समानता की दिशा धर्मों, परम्पराओं और अनुष्ठानों से वे सीधे खींचे में क्रान्तिकारी कदम बढ़ाया। इतना ही नहीं चले आ रहे हैं। कथा प्रबन्धों में जो राग-रागिनियां उन्होंने मानव से भी आगे बढ़कर प्रणिमात्र के प्रयुक्त हुई हैं, उनकी तर्जे वैष्णव साहित्य से ली कल्याण के लिए साधना का मार्ग प्रस्तुत किया ।
इस दृष्टि से वे जनतंत्र से भी आगे प्राणतंत्र की साहित्य निर्माण के साथ-साथ साहित्य-संरक्षण भावभूमि प्रतिष्ठित करते हैं । में जैनियों की बड़ी उदार दृष्टि रही है। जैनेतर आर्थिक समन्वय की दिशा में भगवान महावीर विषयों पर स्वतंत्र ग्रन्थ-निर्माण के साथ-साथ जैने- ने अपरिग्रह का सूत्र दिया जिसका फलितार्थ है कि तर साहित्यकारों द्वारा रचित जैनेतर ग्रंथों पर व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं से अधिक सामग्री का विस्तृत प्रशंसात्मक टीकाएं भी इन्होंने लिखी हैं। संचय न करे, अपनी अावश्यकताओं को सीमित करे इस संदर्भ में बीकानेर के पृथ्वीराज राठौड़ कृत और जरूरतमन्द लोगों में प्राप्त सामगी को बांट क्रिसन रुकमणी री वेलि पर जैन विद्वानों द्वारा दे। जो यह कार्य नहीं करता उसकी मुक्ति नहीं लिखित लगभग ७० टीकामों का उल्लेख किया जा होती-संविभागो ण हु तस्स मोक्खो। सकता है । आज जितने भी जैन ग्रंथ भंडार हैं, उनमें कई प्राचीन महत्वपूर्ण जैनेतर ग्रंथ भी संरक्षित हैं ।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि जैनदर्शन की जैन यतियों ने महत्वपूर्ण जैनेतर ग्रन्थों को लिपिबद्ध
समन्वय भावना का फलक अत्यन्त व्यापक प्रौर करना भी अपना पुनीत कर्तव्य समझा। यही
गहरा है। उसका स्वर जीवन-आस्था और जीवनकारण है कि बीसलदेव रासो की लगभग समस्त
सम्पूर्णता का स्वर है । उसकी दृष्टि सदैव सत्यप्राचीन प्रतियां जैन यतियों द्वारा लिखित उपलब्ध
शोधक की दृष्टि रही है। इसी भाव को प्राचार्य होती हैं।
हरिभद्र ने व्यक्त करते हुए कहा है :
पक्षपातो न मे वीरे, न द्वषः कपिलादिषु । दार्शनिक और साहित्यिक समन्वय तभी प्रभावशाली बनता है जब वह आर्थिक और सामाजिक
युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्य : परिग्रह : ।। समन्वय की प्रक्रिया को गति प्रदान करे । भगवान् अर्थात् महावीर के प्रति मेरा पक्षपात नहीं है महावीर ने जिस समतामूलक समाज रचना की ओर और कपिल आदि के प्रति मेरा द्वेष नहीं है। मैं संकेत किया है, वह सर्व धर्म समभाव, सर्व जाति उसी वाणी को मानने के लिए तैयार हूं-जो समभाव और सर्व जीव समभाव पर आधारित है। युक्तियुक्त है।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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