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'चिन्तामणि' एक इस प्रकार का रत्न होता है जिससे विचारी हुई वस्तु तत्काल प्राप्त हो जाती है । कल्पवृक्ष और कामधेनु भी यह कार्यं करते हैं । प्राणी सुखी होना चाहता है । यदि कोई ऐसा पदार्थ उसे मिल जाय जिससे कि उसे शाश्वत, अनन्त श्रानन्द की प्राप्ति हो जाय तो फिर उसे कुछ भी प्राप्त करने को शेष नहीं रहे। क्या ऐसी कोई चीज है ? उत्तर हां में है और वह हमारे पास ही है किन्तु गलती यह हो रही है कि हम उसे जहां वह है वहां न ढूंढ कर अन्यत्र तलाश करते फिरते हैं और इस प्रकार दुःखी होते हैं । वह पदार्थ है हमारा स्वयं का आत्मा । वह ही ध्याता और ध्येय, चितक तथा चिन्त्य है । उसे प्राप्त करके ही हम शाश्वत सुख को प्राप्त कर सकते हैं इसलिए वह ही वास्तव में चितामणि है अन्यत्र उसकी तलाश व्यर्थ है ।
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आत्मा चिन्तामणि है
न्यायप्रभाकर, श्रार्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी
आत्मा क्या है ? कब से है ? किसने उसे बनाया है ? कैसी है ? आदि प्रश्न जिसमें उत्पन्न होते हैं उसी का नाम ग्रात्मा है । ऋतु धातु सातत्य गमन अर्थ में है । वैसे जितने भी धातु गमनार्थक हैं। उनके जाना, आना, जानना और प्राप्त करना ऐसे चार अर्थ हुवा करते हैं अतः इस ऋतु धातु का अर्थ सतत् जानना हो जाता है इसीसे 'प्रततीति श्रात्मा' शब्द बना है जिसका अर्थ हो जाता है कि आत्मा हमेशा ज्ञानस्वभावी है । इसे ही जीव कहते हैं जो अभ्यंतर रूप चैतन्य प्रारणों से और बाह्य रूप इंद्रिय, बल, आयु तथा स्वासोच्छ् वास इन द्रव्य प्राणों से तीनों कालों में जीता था, जीता है और जीवेगा वह जीव है ।
ऐसा यह आत्म तत्त्व शाश्वत् है अर्थात् अनादि काल से है और अनन्तकाल तक रहेगा । इसको बनाने वाला कोई ईश्वर विशेष नहीं है क्योंकि जो ईश्वर भगवान् हैं उन्हें इन प्रपंचों से क्या करना है ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
प्र० सम्पादक
इस जीव का लक्षण है उपयोग | चैतन्यानुविधायी आत्मा का परिणाम उपयोग कहलाता है । इसके भी दो भेद हैं ज्ञान और दर्शन । ज्ञान का कार्य है जानना और दर्शन का कार्य है देखना, अर्थात् यह आत्मा इन गुणों से ज्ञाता द्रष्टा है । वैसे आत्मा में अनंतगुण हैं उनमें से अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतवीर्य और अनंत सुख ये चार गुण प्रमुख हैं ।
यहाँ प्रश्न यह हो जाता है कि जब ये अनंत चतुष्टय आत्मा के गुण हैं तो हम और आप में क्यों नहीं हैं ? हम लोग किंचित् सुख के लिए क्यों तरस रहे हैं ? इसी बात को तो समझना है ।
अनादि काल से श्रात्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध चला आ रहा है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, प्रयु, नाम, गोत्र और अंतराय
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