________________
ऐसे ये कर्म मुख्यतया आठ हैं तथा इनके उत्तर भेद अनादि है फिर भी बीज को जला देने के बाद उसकी एक सौ अड़तालीस हैं अथवा प्रत्येक कर्म के परम्परा की समाप्ति हो जाती है वैसे ही जीव से असंख्यात लोकप्रमाण भी भेद हो जाते हैं । इनमें कर्म को एक बार पृथक् कर देने के बाद इनकी से ज्ञानावरमा कर्म जीव के ज्ञान गुण को प्रावृत परम्परा समाप्त हो जाने से जीव शुद्ध का शुद्ध करता है-ढकता है पूर्ण प्रगट नहीं होने देता है। रह जाता है वह परमात्मा, भगवान्, ईश्वर, जैसे जैसे हम लोगों के इस कर्म का क्षयोपशम होता महावीर आदि कहा जाता है । है वैसा वैसा ही ज्ञान तरतम रूप से पाया जाता है । ऐसे ही दर्शनावरण कर्म दर्शन गुण को ढकता जैन धर्म का हृदय इतना विशाल है कि यह है, वेदनीय कर्म जीव को सुख दुःख का वेदन- प्रत्येक प्राणी को परमात्मा बनाने का उपाय
कराता है, मोहनीय कर्म जीव को मोहित बतलाता है और तो क्या यह एकेन्द्रिय जैसे क्षुद्र कर देता है अपने पराये का भान नहीं होने देता प्राणियों में परमात्मा बनने के लिए शक्ति रूप है, आयु कर्म जीव को किसी भी पर्याय में रोक चितामणि स्वरूप प्रात्मा का अस्तित्व मानता है। देता है, नाम कर्म से ही नाना प्रकार के शरीर, अब रही बात यह कि एकेन्द्रिय जीवों में यद्यपि आकार आदि बनते हैं और नरक आदि गतियों हमारे जैसी आत्मा विद्यमान है फिर भी वे कर्म में भी जाना पड़ता है, गोत्र कर्म इस जीव को के भार से इतने दबे हुए हैं कि हिताहित विचार उच्च या नीच संस्कार वाले कुलों में पैदा करता रूप और कर्ण आदि इंद्रियों के अभाव में कुछ कर है तथा अन्तराय कर्म जीव के दान, लाभ, शक्ति, नहीं सकते हैं । केवल कर्मों का सुख, दुःख भोगना, आदि में विघ्न उत्पन्न कर देता है । ऐसे इन कर्मों उसका अनुभव करना ही उनके पास है। इस जीव के निमित्त से जीव संसार में भ्रमण कर रहा है, राशि में से जो पंचेंद्रिय मन सहित हम लोग हैं और दुखी हो रहा है।
उन्हीं में तत्त्व को समझ कर पुरुषार्थ करने की योग्यता है।
इन जीव और कर्म का संयोग संबन्ध है जैसे कि दूध और पानी में संयोग सम्बन्ध होता है आत्मा के तीन भेद हैं-बहिरात्मा, अन्तअर्थात सम्बन्ध के मख्य दो भेद हैं-तादात्म्य और रात्मा और परमात्मा। जो जीव नित्यप्रति अपने संयोग । उसका उसी में सम्बन्ध तादात्म्य है जैसे स्वरूप से पराङ्मुख विषयों में आनन्द मानने वाले अग्नि का और उष्णता का अथवा आत्मा का और हैं शरीर के सुख में सुखी और दुःख में दुखी होते ज्ञान का इत्यादि इनमें तादात्म्य सम्बन्ध है । इनको हुए शरीर को ही प्रात्मा मान रहे हैं। शरीर से आपस में कभी भी पृथक् नहीं कर सकते हैं । उष्ण भिन्न आत्मा नाम की कोई चीज है जो 'अह-मैं' गुण के बिना अग्नि का अस्तित्व ही नहीं रहेगा इस शब्द से जानी जाती है जो कि चिन्मय चिंताऔर न ज्ञान गुण के बिना आत्मा ही कुछ रहेगी मरिण स्वरूप है, उसका जिन्हें बोध नहीं है और जो अतः दूध और पानी के समान जीव और कर्मों का सच्चे धर्म से, जिनेंद्र भगवान् से व उनकी वाणी सम्बन्ध है । इसे संयोग सम्बन्ध कहते हैं । यद्यपि यह से द्वेष करते हैं अथवा उपेक्षा करते हैं वे बहिरात्मा अनादि है फिर भी इसका अन्त किया जा सकता है। जीव सदा शरीर के सुख साधन में लगे रहते हैं। जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज की परम्परा इनसे विपरीत अन्तरात्मा जीव जिनेंद्र भगवान् को
1-146
महावीर जयन्ती स्मारिका 76"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org