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उल्लेख जैन ग्रन्थों में है, जो उसके स्वरूप के विभिन्न आयामों को प्रगट करते हैं । वस्तुतः परिग्रह में समस्त विश्व एवं व्यक्ति का सम्पूर्ण मनोलोक समाहित है । ग्रपरिग्रह में वह इन दोनों से क्रमशः निर्लिप्त हो कर आत्मा स्वरूप मात्र रह जाता है । जैन दर्शन की दृष्टि से आत्मज्ञान की यह दशा ही चरम उपलब्धि है ।
प्रश्न यह है कि जिस परम्परा के चिन्तक परिग्रह से सर्वथा निर्लिप्त होकर विचरे, जिनके उपदेशों में सबसे सूक्ष्म व्याख्या परिग्रह के दुष्परिणामों की की गयी, उसी परम्परा के अनुयायियों ने परिग्रह को इतना क्यों पकड़ रखा है ? भौतिक समृद्धि के कर्णधारों में जैन समाज के श्रावक श्रग्रणी क्यों हैं ? भगवान् महावीर के समय में भी श्रेष्ठीजन थे। उनके बाद भी जैन धर्म में सार्थवाहों की कमी नहीं रही । मध्य युग के शाह और साहूकार प्रसिद्ध हैं। वर्तमान युग में भी जैनधर्म के श्रीमन्तों की कमी नहीं है । ढाई हजार वर्षों के इतिहास में देश की कला, शिक्षा व संस्कृति इन श्रेष्ठीजनों के प्रार्थिक अनुदान से संरक्षित व पल्लबित हुई है । किन्तु इस वर्ग द्वारा संचित सम्पत्ति से पीड़ित मानवता का भी कोई इतिहास है क्या ? इनके अन्तद्वन्द्व और मानसिक पीड़ा का लेखाजोखा किया है किसी ने ? भौतिक समृद्धि की नश्वरता का आठों पहर व्याख्यान सुनते हुए भी परिग्रह के. पीछे यह दीवानगी क्यों है ? कौन है इसका उत्तरदायी ? इन प्रश्नों के उत्तर खोजने होंगे ।
भारतीय समाज की संरचना की दृष्टि से देखें तो महावीर के युग तक वर्णगत व्यवस्था प्रचलित हो चुकी थी। महावीर के उपदेश सभी के लिए थे । किन्तु हिंसा की उनमें सर्वाधिक प्रमुखता होने से कृषि और युद्ध वृत्ति को अपनाने वाले वर्ग ने जैनधर्म को अपना कुलधर्म बनाने में अधिक उत्साह नहीं दिखाया । व्यापार व वाणिज्य में हिंसा का सीधा
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सम्बन्ध नहीं था । अतः जैनधर्म वैश्यवर्ग के लिए अधिक अनुकूल प्रतीत हुआ। और वह क्रमशः श्रमिष्ठजनों का धर्म बनता गया । इस तरह श्रीमंतों के साथ व्यापारिक समृद्धि और जैनधर्म दोनों जुड़े रहे दोनों द्वारा विभिन्न प्रकार के परिग्रह संग्रह की अपरोक्ष स्वीकृति मिलती रही ।
श्रेष्ठिजनों के साथ जैनधर्म का घनिष्ट सम्बन्ध होने से यह दिनोंदिन मंहगा होता गया । मूर्तिप्रतिष्ठा, मन्दिर निर्माण, दान की अपार महिमा, आदि धार्मिक कार्य बिना धन के सम्भव नहीं रह गये । साथ ही इन धार्मिक कार्यों को करने से स्वर्ग की अपार सम्पदा की प्राप्ति का प्रलोभन भी जुड़ गया । व्यापार बुद्धि वाले श्रावक को यह सौदा सस्ता जान पड़ा। वह अपार धन अर्जित करने लगा । उसमें से कुछ खर्च कर देने से स्वर्ग की सम्पदा भी सुरक्षित होने लगी। साथ ही उसे वर्तमान जीवन में महान दानी व धार्मिक कहा जाने लगा । इस तरह परिग्रह और धर्म एक दूसरे के बराबर आकर खड़े हो गये । महावीर के चिन्तन से दोनों परे हट गये ।
परिग्रह-संचय का तीसरा कारण मनोवैज्ञानिक है । हर व्यक्ति सुरक्षा में जीना चाहता है । सुरक्षा निर्भयता से आती है और निर्भयता पूर्णता से । व्यक्ति अपने शरीर की क्षमता को पहिचानता है । उसे अंगरक्षक चाहिए, सवारी चाहिए, धूप एवं वर्षा से बचाने के लिए महल चाहिए, और वे सब चीजें चाहिए जो शरीर की कोमलता को बनाए रखें । इसीलिए इस जगत् में अनेक वस्तुत्रों का संग्रह है । शरीर की अपूर्णता वस्तुओं से पूरी की जाती है । शरीर के सुख का जितना अधिक ध्यान है, वह उतनी ही अधिक वस्तुनों के संग्रह का पक्ष - पाती है । इन वस्तुओं के सामीप्य से व्यक्ति निर्भय बनना चाहता है । धर्म, दान-पुण्य उसके शरीर को स्वर्ग की सम्पदा प्रदान करेंगे इसलिए उसने धर्मं
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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