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अपरिग्रही गृहस्थ के लिए पहली मावश्यकता यह है कि वह जो संग्रह करे उसके परिणामों से परिचित हो। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति वह इस प्रकार करे कि उससे दूसरे के हितों का कम से कम नुकसान हो। दूसरी अावश्यकता यह है कि प्रापकी प्रामाणिकता अक्षुण्ण रहे, वह खण्ड-खण्ड न हो। यह बताते हुए लेखक ने बताया है कि अब समय मा गया है कि हम अपने पापको भौतिकता की ओर से हटा कर नैतिकता की ओर मोड़ तब हो हमारा, हमारी समाज का, राष्ट्र का और आगे बढ़ कर विश्व का कल्याण संभव है।
प्र० सम्पादक
अपरिग्रह के नये क्षितिज .डा. प्रेमसुमन जैन,सहायक प्रोफेसर, प्राकृत,
उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर
भौतिकवाद के इस युग में प्राध्यात्म की गृहस्थ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य का पालन चर्चा ने जिस ढंग से जोर पकड़ा है उससे प्रतीत करता हुआ अपरिग्रह व्रत को भी जीवन में उतारे । होता है कि मानव को जिस संतोष व सुख की वस्तुतः यह पांचवां व्रत कसौटी है श्रावक व साधु तलाश है, वह धन वैभव में नहीं है । पाश्चात्य के लिए। यदि वह अहिंसा आदि व्रतों के पालन देशों के समृद्ध जीवन ने इसे प्रमाणित कर दिया में प्रामाणिक रहा है तो वह परिग्रही हो नहीं है। भारतीय मनीषा हजारों वर्षों से भौतिकता के सकता। और यदि वह परिग्रही है तो अहिंसा दुष्परिणामों को प्रकट करती आ रही है। फिर ' आदि व्रत उससे सधे नहीं हैं। अपरिग्रह के इस भी मनुष्य के पास अपार परिग्रह है। उसके प्रति दर्पण में आज के समाज का मुखौटा दर्शनीय है । तृष्णा है। साथ ही परिग्रह से प्राप्त प्रान्तरिक
परिग्रह की सबसे सूक्ष्म परिभाषा तत्त्वार्थसूत्र क्लेश व पीड़ा के प्रति छटपटाहट भी। अतः स्वा
में दी गयी है-"मूर्छा परिग्रहः ।" भौतिक वस्तुओं भाविक हो गया है अपरिग्रह के मार्ग को खोजना।
के प्रति तृष्णा व ममत्व का भाव रखना मूर्छा उस दिशा में आगे बढना ।
है । इसी बात को प्रश्नव्याकरणसूत्र आदि ग्रन्थों भारतीय धर्म दर्शन में तृष्णा से मुक्ति एवं में विस्तार दिया गया है । अन्तरंग परिग्रह की और त्याग की भावना आदि का अनेक ग्रन्थों में प्रति- बाह्य-परिग्रह की बात कही गयी है। आत्मा के पादन है। किन्तु अपरिग्रह के स्वरूप एवं उसके निज गुणों को छोड़कर क्रोध लोभ आदि पर भावों परिणामों का सूक्ष्म विवेचन जैन ग्रन्थों में ही को ग्रहण करना अन्तरंग परिग्रह तथा ममत्व भाव अधिक हुआ है। पार्श्वनाथ के चतुर्याम-विवेचन से धन, धान्य आदि भौतिक वस्तुओं का संग्रह
शाधर तक के श्रावकाचार ग्रन्थों करना बाह्य-परिग्रह है। शास्त्रों में परिग्रह को एक में पांच व्रतों के अन्तर्गत परिग्रह-परिभाग व्रत की महावृक्ष कहा गया है। तृष्णा, आकांक्षा आदि सूक्ष्म व्याख्या की गई है । उस सबका विवेचन यहां जिसकी जडें तथा छलकपट, कामभोग आदि प्रतिपाद्य नहीं है। मूल बात इतनी है कि जैन शाखाएं व फल हैं। परिग्रह के तीस नामों का
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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