________________
उपरोक्त अनेकान्तवादी विचारों को कथन इस तरह से भ. महावीर ने जनसामान्य के करने के लिये महावीर ने स्याद्वाद की भाषा सामने यह बात प्रस्तुत की, कि अनेकान्तवादी बतलाई । स्याद्वाद का मतलब है अपेक्षावाद । विचारों को अच्छी तरह से समझने पर स्याद्वाद स्यात् माने अपेक्षा और वाद माने की भाषा प्रयुक्त करने पर मानव-समाज के अनेकों सिद्धान्त अर्थात् अपेक्षा सिद्धान्त अपेक्षावाद का झगड़े समाप्त हो सकते हैं, विश्वशांति का माहौल सिद्धांत । स्याद्वाद के द्वारा अनन्त धर्मों वस्तु के संस्थापित हो सकता है । परस्पर एक-दूसरे विचारों प्रतिपादन के समय वस्तु के किसी एक ही पहलू को को समझने के कारण एक दूसरे की अवमानना ध्यान में रखकर उसी का विशेषरूप से (मुख्य रूप की स्थिति भी जाती रहती है क्योंकि अनेकान्तवादी से) कथन किया जाता है शेष सारे धर्म या यह भली प्रकार से जानता है कि मुझ से वार्तालाप पहलू गौण या सामान्य हो जाते हैं। उदाहरणार्थ करने वाला मुझसे जो बात कर रहा है उसकी जैसे मैं आम का प्रतिपादन करता हूँ कि "ग्राम वह बात उसकी उस विशेष दृष्टि को लेकर वैसी ' किसी अपेक्षा से हरा होता है।" यद्यपि प्राम में भी है और अन्य तरह की भी है। अनन्त धर्म मौजूद हैं, पर भी यहाँ पर हरेपन को मुख्य कर आम का प्रतिपादन किया गया
. महावीर के उपर्युक्त सिद्धान्तों का है । अतः यहाँ पर आम के प्रतिपादन में आम के भलीभांति पर्यालोचन करने के बाद हम देखते हैं हरेपन की अपेक्षा से कथन किया गया है अन्य
कि उन्होंने मानव मात्र को जो उपदेश दिये उनमें अपेक्षाओं को सामान्य कर दिया गया है; अन्य
निहित आचार में अहिंसा, विचारों में अनेकान्त, अपेक्षाओं से ग्राम मीठा भी हो सकता है, खटा भी वाणी में स्याद्वाद और व्यवहार में अपरिग्रहवादी हो सकता है ग्रादि । इस प्रकार महावीर ने बत- बनने की भावना के दिव्य दृष्टिकोण भौतिकवाद लाया कि अनेकान्तवादी विचारों के लिये स्याद्वाद की उपासना से प्रशांत मानव समाज के लिये आज की भाषा परमावश्यक है और स्यावाद की भाषा . के युग में भी पूर्ण उदात्त अादर्श हैं । जिनके आधार बोलते समय तत्वों के प्रतिपादन करने के लिये जो. पर ही साम्यवाद या समाजवाद की कल्पना पूरी वचन-व्यवहार होता है उसे सप्तभङ्गी कहते हैं। हो सकती है, सभी तरह की विसङ्गतियों और विषभङ्ग सात ही होते हैं अतः उन्हें सप्तभङ्गी कहते मताओं की ऊबड़-खाबड़ खाई पाती जा सकती है हैं। विशेष परिज्ञान हेत जैनागमों का पर्यालोचन - और मानव-मानव अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त कर करना चाहिये।
सकता है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
-1-101
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org