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होकर बंध जाते हैं, यही प्राणी के दुःख का कारण है। यही नहीं, कोई भी द्रव्य किसी दूसरे द्रव्य का है । पुण्य-भाव और पाप-भाव इन दोनों के शुभाशुभ कर्ता-हर्ता भी नहीं है। यह विश्व अनादि अनन्त परिणामों से पृथक् एवं मोह-राग-द्वेष आदि समस्त है- इसे न तो किसी ने बनाया है और न ही कोई विकारी भावों, जो कि संसार एवं दुःख के कारण इसका विनाश कर सकता है। समस्त जगर परिहैं, से मुक्त हो जाने की जीव की शुद्धावस्था मोक्ष वर्तनशील हो कर भी नित्य है और नित्य होकर भी है । अन्तरोन्मुखीवृत्ति द्वारा आत्म-साक्षात्कार प्राप्त परिवर्तनशील है। परंतु जैन धर्म ऐसी प्राकृतिक करके ही इस स्थिति को प्राप्त किया जा सकता व्यवस्था में पूरा विश्वास रखता है, जिसका कोई है। यह प्रात्मानुभूति ही सब धर्मों का सार है। कर्ता-नियंता न होने पर भी जो वैज्ञानिक है, जिसके आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए समस्त जगत् अन्तर्गत काल परिवर्तन सतत् और स्वतः होता यानी अात्मा से भिन्न शरीर, कर्म आदि (जड़) रहता है। ब्रह्मांड का विकास व परिवर्तन, उन्नतिअचेतन द्रव्यों के अथवा यात्मा में प्रति समय उत्पन्न अवनति, निश्चित क्रमानुसार होते रहते हैं। वह होने वाली (मोह-राग-द्वषमय) विकारी प्रविकारी स्वर्ग, नरक, मनुष्य आदि लोकों की सत्ता भी मानता पर्यायों से भी, दृष्टि हटा कर अखण्ड त्रिकाली
है जिनमें जीव अपने कर्मानसार भ्रमण करते रहते हैं चैतन्य ध्रव प्रात्म-तत्व में स्व-दृष्टि को स्थिर और जब वे समस्त राग-द्वेष-तन्तु
मुक्त होकर करना ठावश्यक है। यही एक मात्र प्राप्तव्य है, अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप में स्थिर-लीन जिसे कि धर्म कहा गया है। भगवान् महावीर के हो जाते हैं तब सदा के लिये मुक्त अथवा सिद्ध हो उपदेशों का केंद्रबिंदु आत्मा का हित ही है। प्रात्मा- जाते हैं । र्थी को, मुमुक्षु को अपने को पहिचानना चाहिए,
मानव-प्राणियों की शाश्वत् त्रैकालिक समस्या अपने में जम जाना चाहिये, रम जाना चाहिये ।
है, दुःख कैसे मिटे और सुख कैसे प्राप्त हो ? भगवान् सच्चा सुख अपने में है, पर में नहीं। पंचेंद्रिय के
महावीर ने इसका शाश्वत् हल प्रतिपादित विषयों में सुख है ही नहीं। अन्त में जो अनन्त आनन्दमय महिमावंत पदार्थ विद्यमान है, उसके
किया है स्वात्मानुभूति । प्रत्येक प्राणी स्वतन्त्र है,
अपना नियंता है। उसकी उन्नति-अवनति, मुक्ति व मुकाबले में बाह्य विभूति की कोई गिनती नहीं।।
बंधन उसके हाथ में हैं। सब कुछ उसके पुरुषार्थ __ भगवान् महावीर के सर्वोदय-तीर्थ (उपदेश) पर निर्भर है । जब पुरुषार्थ का उदय होता है, तब के "वस्त स्वातंत्र्य और समानता के हो ही दूसरे सहायक योग भी बैठ जाते हैं। यथा दशस्तंभ हैं, जिन पर स्याद्वाद शैली में अभिव्यक्त अने- भव पूर्व सिंह की पर्याय होते हुए भी दो मुनियों कान्तात्मक वस्तुस्वरूप सूर्य और चन्द्रमा की भांति द्वारा भगवान् महावीर के जीव को उद्बोधित किया प्रकाशित हो रहा है और अहिंसात्मक आचरण की गया, जिससे उसकी जीवन-धारा ही बदल गई । पावन गंगा में प्रवाहित होकर अपरिग्रह के अानन्द- जैन धर्म किसी भी ईश्वरीय शक्ति को कर्ता-नियंता सागर में लहरा रहा है (पृ. ६६.)।"
के रूप में नहीं मानता, अतः वह यह भी नहीं मानता (ती. भ. म. उ. ख. ती.)
हो कि तीर्थंकर, अर्हन्त, सिद्ध आदि के नाम-जपमात्र में
' अथवा उनकी अथवा किसी और शक्ति की कृपामात्र जैनधर्म के अनुसार प्रत्येक जीव आत्मानुभूति से मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है। मुक्ति के लिये के राजमार्ग पर चल कर भगवान् बन सकता है। तो भोगों की आसक्तियों के एवं राग-द्वेषादि विकारों कोई शक्तिमान् ईश्वर जगत् का कर्ता-नियंता नहीं के पूर्णतः त्याग की ओर ले जाने वाला पुरुषार्थ
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76.
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