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"आत्मपरिणाम हिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् । अनृतवचनादिकेवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय || आत्मा के शुद्ध परिणामों के घातक सभी भाव हिंसा ही हैं; भेद तो मात्र शिष्यों को समझाने के लिए कहे हैं ।"
उक्त मार्ग की श्रेष्ठता --- जैन धर्म में मुक्ति का मार्ग है- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्यं और अपरिग्रह । इन पांच आधारभूत सिद्धान्तों के आचरण द्वारा अपने जीवन को क्रमिक रूप से निर्मल और पवित्र करते हुए, उपलब्ध सांसारिक भोगों एवं सुविधाओं का दायरा संकुचित करते हुए अपनी आत्मा को उसके वास्तविक शुद्ध स्वरूप की ओर ले जाना । जैन मत स्वतः त्याग का पथ प्रशस्त करता है; अपने अनेकांतात्मक दृष्टिकोण एवं स्याद्वादमयी वाणी द्वारा वह दूसरों की स्वतन्त्रता का सम्मान करता है और उनके विचारों एवं दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न करता है और अहिंसात्मक ग्राचरण द्वारा दूसरे प्राणियों को कष्ट न पहुंचाते हुए श्रौर उनकी सुविधा का ध्यान रखते हुए साधक को आगे बढ़ाता है । वह वर्गभेद में नहीं पड़ता । अपने लक्ष्य पर पहुंचने के लिए उसे वर्ग संघर्ष, रक्त-क्रांति, युद्ध, किसी तरह के संगठन किलेबंदी श्रादि की कोई अपेक्षा नहीं है । वहां तो साधक को स्वात्मानुभूति द्वारा अपने निर्मल स्वरूप को प्राप्त करना है । अतः उसका मार्ग एकाकी है । इसके लिये न तो उसे किसी से ईर्ष्या-द्वेष करने की आवश्यकता है-न उससे कोई ईर्ष्या द्वेष करेगा । इस पथ पर अग्रसर होने के लिए उसकी तरफ से सभी प्राणी खुले दिल से आमंत्रित है । उसे तो समाज, परिवार, स्थूल शरीर के ही नहीं, अपने मानस में प्रच्छन्न सूक्ष्म राग तंतुत्रों को भी छिन्न करना है । उसके लिए गृहस्थाश्रम भी मात्र दिगंबर मुनि अवस्था तक पहुंचने के लिए सीढ़ी मात्र है । उसे निर्बाध अपनी साधना में लगे रहना है । यदि कोई संकट, उपद्रव, व्यवधान, उसके रास्ते में उपस्थित होते हैं तो उन्हें
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एक चुनौती समझते हुए परीषहों को निर्लिप्त भाव से शांतिपूर्वक सहना है । उस परिस्थिति को न संघर्ष द्वारा बदलने का प्रयत्न करना है, न बदले की भावना रखना है, न उससे हटना व भागना है । उसे तो आत्मजयी बनना है !! श्रात्मा के परिप्रेक्ष्य में इससे बड़ा प्रदर्श क्या हो सकता है ?
उपरोक्त मार्ग की सामयिक दृष्टि से समीक्षाप्रश्न है क्या आज की परिस्थितियों में व्यक्ति के संपूर्ण जीवन तथा समस्त समाज व देश के प्रति उसके उत्तरदायित्वों की पृष्ठभूमि में भी यही मार्ग प्रांख बंद करके श्रेयस्कर माना जा सकता है ?
शासनतंत्र व्यवस्था इतनी सशक्त और विश्वसहो कि बाहरी शत्रु देश का कोई खतरा न हो और प्रांतरिक व्यवस्था भी इतनी अच्छी हो कि जन-साधारण पूर्ण सुरक्षा का अनुभव करे । देश की अर्थ-व्यवस्था इतनी ठोस हो कि सब की आधारभूत आवश्यकतायें पूरी हो जायें और किन्हीं वर्गों में असंतोष व्याप्त न हो; और देश में वैभव व सम्पत्ति की प्रचुरता हो, शासन-तन्त्र द्वारा पूरा विचार- स्वातंत्र्य हो, सामाजिक मर्यादाओं का पालन किया जाता हो ।
हम देखते हैं कि मनुष्य की स्वार्थमूलक एवं हिंसापरक प्रवृत्तियों के कारण एक ही देश के विविध वर्गों में विषम, संघर्षमयी, ग्रार्थिक शोषण पर आधारित संतोष की स्थितियां पैदा हो जाती हैं । पड़ोसी देशों की एवं विश्व के अन्य शक्तिशाली राष्ट्रों की स्वार्थमयी राजनीति के कारण कठिन संकटकालीन परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जिनके निराकरण के लिए देश में प्रांतरिक शांति बने रहने की सतत् आवश्यकता है । राष्ट्र की शक्ति का सर्वाधिक स्रोत उसके नागरिकों की देश के प्रति वह आस्था है, जो संकट के समय देश के हित के लिये उनसे बड़ा से बड़ा बलिदान करा सकती हो । तभी अराजकता, आक्रमण, भीषरण संकट, विप्लव
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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