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भरण-पोषण करते हैं, परलोक सुधारते हैं, वे तो इनकार किया था । व्यक्ति का कर्म ही सब कुछ पए पापी और बैठे-बैठे बिना श्रम के पेट भरने वाले है। हमें यहां दार्शनिक या सैद्धांतिक झमेले में धर्मात्मा। क्या भगवान् महावीर ऐसा धोखे में नहीं पड़ना है। इतना अवश्य कहा जा सकता है डालने वाला, प्रात्मवंचक, दीन बनाने वाला कि महावीर जैसा तपस्वी और मनस्वी व्यक्तित्व अपरिग्रह प्रतिष्ठित करना चाहते थे ? यह ठीक है पराकोटि का विनम्र और शन्य ही हो सकता है । 'कि महावीर ने प्रत्यक्ष रूप से श्रम की प्रतिष्ठा का ऐसा व्यक्ति समाज पर हावी नहीं हो सकता। उद्घोष नहीं किया, न उत्पादक श्रम पर जोर साधना उनकी नितांत वैयक्तिक रही, किन्तु थी वह दिया । सिद्धान्तवादी लोग यह भी कह सकते हैं समाज-कल्याण के लिए। सामूहिक और सामूहिक कि कर्म करना मात्र पापपूर्ण है, सावद्य आचार है, साधना की भूमिका तैयार किये बिना अकेले व्यक्ति प्रारम्भ में या कि क्रियामात्र में हिंसा है और की स्वतन्त्रता या साधना का क्या मूल्य ? पांचों
व्रतों का परिणाम समाज में, समाज के लिए और सकते थे। फिर भी महावीर जैसा महापुरुप श्रम की समाज की ओर से ही व्यक्ति के जीवन में प्रतिबिंबित महत्ता से आँख नहीं मूद सकता था । श्रमण शब्द हो सकता है। तभी इनमें गुणात्मक तेजस्विता में ही श्रम और संयम की प्रतिष्ठा है।
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आ सकती है।
' अभाव में से अपरिग्रह नहीं निपजता । जिसमें संग्रह और त्याग दो चीजें नहीं हैं । यदि संग्रह की शक्ति न हो वह त्याग नहीं कर सकता। व्यक्ति अपने को समाज का अंग मानता है तो जितना पराक्रम संग्रह के लिए आवश्यक है, उससे उसका संग्रह समाज का है और उसका त्याग भी कम जोर त्याग में नहीं लगता। जिसके पास है ऐसा बीज वपन है जिससे हजार-हजार गुना फसल नहीं या जो प्राप्त नहीं कर सकता, वह तो अपनी निकल सकती है । प्रेम और करुणा की भूमिका में
आकांक्षाओं में ही अटक जाता है । इसलिए से ही सामाजिकता विकसित होती है। अब तक निर्धनता अपरिग्रह नहीं है। जो है और काबू में हमारे यहां संग्रह भी व्यक्तिगत रहा और त्याग है, उसीको व्यर्थ बना छोड़ना अपरिग्रह हो सकता भी व्यक्तिगत रहा--अध्यात्म भी व्यक्तिगत और है। जो अपरिग्रह की ओर बढ़ता है, वह श्रम से भौतिक उपलब्धि भी व्यक्तिगत । एक आदमी बचाव नहीं चाहेगा । बल्कि दुगुना-तिगुना भी घर-बार, जमीन-जायदाद त्याग कर साधु बन करेगा। अपरिग्रह अंगीकार करने वाले की जाता है और इस सारी सम्पत्ति का उपयोग पीछे सामाजिक चेतना तीव्र हो उठती है और उसमें के उत्तराधिकारी करते हैं। साधू अपने वैराग्य में एक ऐसी व्यापक व्यथा होती है कि वह सबके या त्याग के आनन्द में किसी को भागीदार नहीं प्रति सहज उपलब्ध रहता है।
बनाता और संग्रह का उपयोग करने वाले भी
अपनी चीजों को अपने तक सीमित मानकर चलते महावीर ने अपने को समाज में व्याप्त कर दिया हैं। यह एक ही भूमिका है और कहना चाहिए कि था। उनका व्यक्तित्व समाज को अर्पित हो गया सामंती ढ़ग से ही दोनों स्थितियों का विकास हा था । व्यक्ति स्वातन्त्र्य के समर्थक कह सकते हैं कि है। किन्तु आज विश्व की परिस्थितियां भिन्न हैं। महावीर ने समाज की परवाह न करके, परम्पराओं परिग्रह को पाप या अधर्म कह देने से अब की परवाह न करते हुए व्यक्ति के स्वतन्त्र विकास काम नहीं चलने वाला है। इस तिजोरी का पैसा का मार्ग खोला था- यहां तक कि विभुसत्ता से भी . उस तिजोरी में रख देने से प्रपरिग्रह नहीं उदित महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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