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ज्ञान के अनुसार कई बार परिवर्तन करने पड़ते हैं। ठीक वैसी ही स्थिति मूल्यों की है ।"
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा में 'मूल्यों का स्थान' विषय पर पहली संगोष्ठी १६६७ में शिक्षणप्रशिक्षण - महाविद्यालय वाराणसी में हुई थी । इस संगोष्ठी के........प्रतिवेदन के प्रमुख में डॉ० एस० एन० मुखर्जी ने मूल्यबोध को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखते हुए स्पष्ट किया है कि वैदिककाल के बाद अर्थात् मध्य काल में हमारे मूल्यबोध में गिरावट आई। परिणामस्वरूप दसवीं शताब्दी के बाद हमारे देश को बाह्य आक्रमणकारियों की दासता स्वीकार करनी पड़ी ।
[ सामाजिक परिवर्तन और मूल्य संवेदना; ले० उमरावसिंह चौधरी; नया शिक्षक, अप्रैल-जून '७५; पृष्ठ सं. ३५ ]
( २ ) हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि संपूर्ण वट वृक्ष के सशक्त और समृद्ध रहने की स्थिति में ही यह संभव है कि वृक्ष की कुछ शाखायें अत्यंत ऊंची प्रकाशोन्मुख हो सकें — इसी प्रकार सशक्त देश और उसकी उत्तरदायित्वपूर्ण समाज व्यवस्था में ही यह संभव है कि कुछ व्यक्ति नागरिक-उत्तरदायित्वों से कतई मुक्त होकर श्रात्मानुभूति के मार्ग का अवलम्बन कर मोक्ष मार्ग के अनुगामी हो सकें ।
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ऐसी स्थिति में शेष समाज व देश का यह कत्त व्य होगा कि उनके संपूर्ण भार को वहन करें ।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि जैन धर्म के सिद्धाजन्तों में मानवों की शाश्वत् समस्याओं के समाधान के बीज विद्यमान हैं और उनका सामयिक दृष्टि से महात्मा गांधी और विनोबाजी जैसे कर्मयोगी चिन्तकों द्वारा उपयोग किया भी गया है । फिर भी मेरी विनम्र सम्मति में यह कार्य जैन धर्म के प्रकाण्डपंडितों का है कि जैन धर्म के शाश्वत् सिद्धान्तों की 'संपूर्ण जीवन-दर्शन' के रूप में सामयिक व्याख्या प्रस्तुत करें --- ताकि एक तरफ तो अपनी भीषण समस्यात्रों से त्रस्त वर्तमान युग विशेषतः अपना देश उनसे अपना समाधान और मार्ग-दर्शन प्राप्त कर सकें और दूसरी ओर जैनधर्मावलम्बी भी उनसे लाभ उठा सकें और राष्ट्र के उत्थान में अधिकाधिक सक्रिय योगदान कर सकें ।
"जयं चरे, जयं चिट्ठे, जयं मासे, जयं सये । जयं भुञ्जन्तो भासन्तो पावकम्मं न बंधई । ' 'विवेक से चलो, विवेक से रुको, विवेक से बैठो, विवेक से सोश्रो, विवेक से खाओ, विवेक से बोलो तो पाप नहीं बंधेगा ।'
'क्या 'विवेक' को काल और परिस्थितियों के रूढिगत बंधनों द्वारा अवरुद्ध किया जा सकता है ?
अनेकांत-नमन
जिसमें विरोधों का शमन है, दुराग्रहों का दमन है,
नाना नयों का चमन है; अभय तथा अमन है; ऐसे त्रिभुवन तिलक अनेकांत को बारंबार नमन है ।
● श्री मूलचंद पाटनी, बंबई ।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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