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मानव अाज हिंसा को सदा सदा के लिये __महावीर ने मानव के प्राचार को एक ओर तिलांजलि दे दे और भगवती मङ्गलकारिणी जहाँ अहिंसा और अपरिग्रहवाद की सुदृढ़ नींव पर अहिंसा देवी की शरण ले ले तो तुरन्त ही सारी स्थापित किया वहीं दूसरी ओर उसके विचार अशांति; असन्तोष व सारी विषमतायें अपने-अपने एवं अभिव्यक्ति को अनेकांतवाद, स्याद्वाद और रास्ते ओझल हो जायेंगी।
सप्तभङ्गवाद की वज्रशिला पर आरोहित किया ।
जिस प्रासाद की निमिति एकान्तवादी शत्रुओं के अपनी आवश्यकताओं से अधिक वस्तुओं के लिए सर्वथा अजेय और अगम्य है । अनेकान्तसंग्रह करने की दुष्प्रवृत्ति प्राधुनिक युग में एक वाद के संदर्भ में महावीर ने बताया कि प्रत्येक फैशन-सी बन गई है। चारों तरफ एक होड़-सी वस्तु के अन्दर परस्पर सापेक्ष अनन्त धर्म मौजूद मची हुई है कि कौन कितनी अधिक वस्तुओं का है। एक ही बार में किसी वस्तु के समस्त धर्मों का स्वामी है । व्यक्ति के व्यक्तित्व का मूल्यांकन आज । कथन संभव नहीं है। एक बार में किसी वस्तु के उसके व्यक्तिगत गुणों से न किया जाकर उसके पास एक ही धर्म का कथन संभव है। इसीलिये जब कोई उपलब्ध वैभव सामग्रियों से किया जाने लगा है। व्यक्ति किसी वस्तु का प्रतिपादन करता है तो हमें परिणामस्वरूप समग्र विश्व में आज अन्याय, यह बात ध्यान में रहनी चाहिये कि वह व्यक्ति अत्याचार, शोषण, झूठ और पाखण्ड का बाजार एक बार में वस्तु के एक ही विशेष धर्म का ही कथन गर्म है। लोग अपने को मानसिक अशान्ति से या प्रतिपादन कर रहा है न कि वस्तु के समग्र नितान्त अशान्त पाते हुए भी अशान्ति की बुनियाद धर्मों का । दूसरी बार में वस्तु के अन्य दूसरे धर्मों वैभव व उसकी अदम्य लालसा को नहीं त्याग का अन्य तरह से भी प्रतिपादन सम्भव है । जैसे रहे हैं ।रोग बढ़ता ही जा रहा है । ठीक इसी किसीने कहा कि-"राम दशरथ के पुत्र थे ।" इस तरह की स्थिति महावीर के युग में भी अपना वाक्य में राम का पूरा कथन तो किया नहीं गया महावितान ताने हुए थी। महावीर ने देखा कि है केवल एक ही पुत्रत्व धर्म को ही विशेषितकर एक तरफ लोग शांति की चाह में भटक रहे हैं राम का कथन किया गया है । तभी यदि कोई कहे तथा दूसरी तरफ उसके विरोधी कारण परिग्रह कि राम लक्ष्मण के भाई थे तो यह भी किसी को छोड़ नहीं रहे हैं। तब कैसे उन्हें शांति मिल अपेक्षा से सही है । यहां पर राम के भ्रातृत्व धर्म सकती है ? अशांति की सारी जड़ तो परिग्रह ही को विशेषितकर कथन किया गया है। इसी तरह है । कहावत भी है कि जोरू, जर, जमीन, झगड़े की राम में विद्यमान अनन्त धर्मों का कथन अन्य धर्मों जड़ तीन । अर्थात् जब तक परिग्रह को दूर नहीं की अपेक्षा अन्य अन्य तरह से भी संभव है। अतः किया जायेगा तब तक शांति मिलना असंभव है। अनन्तधर्मात्मक वस्तु का पूर्ण प्रतिपादन अतः उन्होंने कहा--संग्रही मत बनो । अपनी आव- किसी एक ही बार में सम्भव नहीं है । इसीलिये श्यकताओं को सीमित रखो । आवश्यकताओं से किसी एक ही दृष्टि से किसी वस्तु के स्वरूप अधिक वस्तुओं को मत रखो और उसमें भी घटाते को पूर्ण नहीं मान लेना चाहिये । किसी वस्तु जायो । तभी तुम्हें शांति मिल सकती है । कितना के बारे में किसी एक ही प्रकार का निर्णय नहीं पावन था महावीर का अपरिग्रहवाद का वह दिव्य लेना चाहिये। क्योंकि कोई वस्तु एक प्रकार से संदेश जिसकी सार्थकता आज भी विश्व समाज में ऐसी है तो दूसरे प्रकार से वैसी भी है यही है उतनी ही है जितनी कि उस युग में थी। तीर्थङ्कर महावीर का अनेकान्तवाद ।।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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