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को देते थे। भगवान महावीर की माता महारानी.. "हर्ष का विषय है कि आज भी जैन समाज में प्रियकारिंगी जब अपने स्वप्नों का फल पूछने. स्त्रियां भगवान् का प्रक्षाल पूजन करती हैं। कहीं महाराजा सिद्धार्थ के पास गई तब महाराजा ने कहीं रूढिप्रिय लोग उन्हें इस धर्मकार्य से रोकते अपनी धर्मपत्नी को आधा आसन दिया, महारानी भी हैं, और उनकी यद्वा तद्वा आलोचना करते ने वहां बैठकर अपने स्वप्नों का वर्णन किया । हैं। उन्हें यह सोचना चाहिये कि जो आर्यिका होने यथा
का अधिकार रखती है वह पूजा प्रक्षाल न कर
सके यह कैसी विचित्र बात है ? पूजा प्रक्षाल तो "संप्राप्तासिना स्वप्नान् यथाक्रममुदाहरत् ॥"
__ आरंभकार्य है अतः वह कर्म बन्ध का निमित्त है
-उत्तरपुराण। जिससे संसार (स्वर्ग आदि) में ही चक्कर लगाना इसी प्रकार महारानियों का राजसभाओं में पड़ता है जब कि आर्यिका होना संवर और निर्जरा जाने और वहां पर सम्मान प्राप्त करने के अनेक का कारण है, जिससे क्रमशः मोक्ष की प्राप्ति उदाहरण जैन शास्त्रों में भरे पड़े हैं। जब कि होती है। वैदिक ग्रन्थ स्त्रियों को धर्मग्रन्थों के अध्ययन करने
___अब विचार कीजिये कि एक स्त्री मोक्ष के का निषेध करते हुए लिखते हैं कि "स्त्रीशूद्रौ
कारणभूत संवर और निर्जरा करने वाले कार्य तो नाधीयाताम्" तब जैनग्रन्थ स्त्रियों को ग्यारह अंग
कर सकती है किन्तु संसार के कारणभूत बंधकर्ता के पठन पाठन करने का अधिकार देते हैं । यथा---
पूजन प्रक्षाल आदि कार्य नहीं कर सकती ! यह द्वादशांगधरो जातः क्षिप्रं मेघेश्वरो गणोः । कैसे स्वीकार किया जाय ? एकादशांगभृजाताऽयिकापि सुलोचना ॥52॥
जैनधर्म सदा से उदार रहा है, उसे स्त्री-पुरुष हरिवंशपुराण सर्ग 12 ।
या ब्राह्मण शूद्र का लिंग-भेद या वर्ण-भेद-जनित - अर्थात् जयकुमार भगवान् का द्वादशांगधारी कोई पक्षपात नहीं था। हाँ, कुछ ऐसे दुराग्रही गणधर हुआ और सुलोचना ग्यारह अंग की व्यक्ति हो गये हैं जिन्होंने ऐसे पक्षपाती कथन करके धारक आर्यिका हुई।
जैनधर्म को कलंकित किया है। इसी से खेदखिन्न
होकर आचार्यकल्प पंडितप्रवर टोडरमलजी ने ___ इसी प्रकार स्त्रियां सिद्धान्तग्रन्थों के अध्ययन के साथ ही जिनप्रतिमा का पूजा-प्रक्षाल भी किया
___'बहुरि केई पापी पुरुषां अपना कल्पित कथन करती थीं। अञ्जना सुन्दरी ने अपनी सखी वसन्तमाला के साथ वन में रहते हुये गुफा में विराजमान
किया है। अर तिनकों जिन वचन ठहरावे हैं ।
तिनकौं जैनमत का शास्त्र जानि प्रमाण न करना। जिनमूर्ति का पूजन प्रक्षाल किया था। मदनवेगा ने वसुदेव के साथ सिद्धकूट चैत्यालय में जिन- तहां भी प्रमाणादिक ते परीक्षा करि विरुद्ध अर्थ पूजा की थी। मैनासुन्दरी प्रति दिन प्रतिमा का
__ को मिथ्या जानना।" . प्रक्षाल करती थी और अपने पति श्रीपाल राजा
-मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 307 । को गंधोदक लगाती थी। इसी प्रकार स्त्रियों के तात्पर्य यह है कि जिन ग्रन्थों में जैनधर्म की द्वारा पूजा-प्रक्षाल किये जाने के अनेक उदाहरण उदारता के विरुद्ध कथन है, उन्हें जैन ग्रन्थ कहे पाये जाते हैं।
जाने पर भी मिथ्या मानना चाहिये । कारण कि
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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