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वसुधा पर उतरे वर्द्धमान
. श्री ज्ञानचन्द 'ज्ञानेन्द्र' ढाना (सागर) हिंसा ताण्डव का हुअा अन्त
पाखण्ड हो गया खण्ड खण्ड चीत्कारों के बाजार बन्द
बलि यज्ञों के पावक प्रचण्ड ।। कुण्ठित हो गई तीक्ष्ण खड्नें
थक गई रक्त की प्रबल धार नहीं बैर भाव का रहा लेश
तब सुहृद बन गये शेर स्यार ।। थे एक घाट ही सिंह गाय
रहते खाने और पीने को जब त्रिशलानन्दन का गूजा
स्वर 'जियो और जीने दो' ।। निर्धन पर धनिकों और निबल पर
सबलों के सनेह छलके व ऊंच नीच का छुआछूत का ।
. भूत भग गया भूतल से ।। सब बने एक ही माटी से ।
मानव चींटी या हाथी से ....केशी चाण्डाल को 'सन्मति' ने
था स्वयं लगाया छाती से ।। निविष हो गया घोर विषधर
मदमत्त मतंग हुग्रा निरमद 'चन्दन' के बन्धन टूट गिरे
खुशियां बिखरी 'बाजे अनहद' ।। हर मनुज जन्म से नहीं
बड़ा छोटा कर्मों से होता है सुकृत दुष्कृत कर्मों का भी .
वह भार स्वयं ही ढोता है । — अहिंसा परमो धर्मः ' से
ज्योतिर्मय का सारा जहान 'रत्नत्रय ' उमड़ पड़ा जबकि
वसुधा पर उतरे वर्द्धमान ।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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