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विश्व में जितने धर्म हैं उनमें जैनधर्म से अधिक उदार दृष्टिकोण रखने वाला शायद ही कोई धर्म हो। जैनधर्म प्राणिमात्र को समान दृष्टि से देखता है। मुक्ति के मधिकार को छोड़कर जो कि स्त्री की प्राकृतिक बनावट के कारण है (श्वेताम्बर परम्परा तो स्त्री को मुक्ति की अधिकारिणी भी बताती है) स्त्री मोर पुरुष में कोई श्रेष्ठतागत भेद नहीं है इसी प्रकार जैनधर्म में जन्मना कोई जाति नहीं है। किसी जाति में उत्पन्न मनुष्य धर्म पालन कर अपना उत्थान कर सकता है। लिंग, गोत्र अथवा जाति इसमें कोई बाधा नहीं कर सकते। शास्त्रों के विपुल उदाहरणों से प्रादरणीय वयोवृद्ध विद्वान् ने अपनी सशक्त लेखनी से इसे भली प्रकार प्रमाणित किया है। जब से हमने अपने इस प्रौदार्य का परित्याग किया है तब से ही हम ह्रासोन्मुख हो रहे हैं। यदि हम अपना उत्कर्ष चाहते हैं तो इस औदार्य भावना को हमें अपने में लाना ही होगा।
प्र० सम्पादक
जैनधर्म में स्त्रियों के अधिकार तथा गोत्र-परिवर्तन
.पं. परमेष्ठीदास जैन, न्यायतीर्थ,
सम्पादक 'वीर' ललितपुर ।
स्त्रियों के अधिकार
इस सम्बन्ध में श्रीभगवज्जिनसेनाचार्य ने जैनधर्म की सबसे बड़ी उदारता यह है कि अपने प्रादिपुराण (पर्व 38) में स्पष्ट लिखा हैपुरुषों की भांति स्त्रियों को भी तमाम धार्मिक
"पुण्यश्र संविभागार्हाः अधिकार दिये गये हैं। जिस प्रकार पुरुष पूजा
___ समं पुत्र: समांशकः" ॥1540 प्रक्षाल कर सकता है उसी प्रकार स्त्रियां भी कर सकती हैं। यदि पुरुष श्रावक के उच्च व्रतों का
अर्थात् पुत्रों की भांति पुत्रियां भी सम्पत्ति की पालन कर सकता है तो स्त्रियां भी उच्च श्राविका
बराबर-बराबर भाग की अधिकारिणी हैं। दो मरती है। यदि पाष ऊँचे से ऊँचे धर्मग्रन्थों के इसी प्रकार जैन कानून के अनुसार स्त्रियों को, पाठी हो सकते हैं तो स्त्रियों को भी यही अधिकार विधवाओं को या कन्याओं को पुरुष के समान ही है । यदि पुरुष मुनि हो सकता है तो स्त्रियां भी सब प्रकार के अधिकार हैं। आर्यिका होकर पंच महाव्रत धारण कर सकती हैं। (विशेष जानकारी के लिए विद्यावारिधि जैन- धार्मिक अधिकारों की भांति सामाजिक अधि- दर्शनदिवाकर बैरिस्टर चम्पतराय जैन कृत कार भी स्त्रियों के लिये समान ही हैं। यह बात
__ 'जैनलॉ' नामक ग्रन्थ देखना चाहिये ।) दूसरी है कि वर्तमान में वैदिक धर्म आदि के प्रभाव जैन शास्त्रों में स्त्री-सम्मान के भी अनेक से जैनसमाज अपने कर्तव्यों को और धर्म की ___ उल्लेख पाये जाते हैं। आजकल मूढ़ जन स्त्रियों प्राज्ञाओं को भूल गई है। हिन्दूशास्त्रानुसार सम्पत्ति को पैर की जूती या दासी समझते हैं, तब जैन का. अधिकारी पुत्र तो होता है, किन्तु पुत्रियां राजा राजसभा में अपनी रानियों का उठ कर उसकी अधिकारिणी नहीं मानी जातीं।
सम्मान करते थे और अपना अर्धासन उन्हें बैठने
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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