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यथा सम्भव उससे लाभ भी उठाती है । दार्शनिक क्षेत्र में जहां भारत अनेकान्तवाद का सर्जक है, वहीं वह राजनैतिक क्षेत्र में संसदीय प्रजातन्त्र का समर्थक भी है । अतः आज अनेकान्त का व्यावहारिक क्षेत्र में उपयोग करने का दायित्व भारतीय राजनीतिज्ञों पर है ।
पारिवारिक जीवन में जैनधर्म की अनेकान्त दृष्टि का उपयोग :
कौटुम्बिक क्षेत्र में इस पद्धति का उपयोग परम्पर कुटुम्बों में और कुटुम्ब के सदस्यों में संघर्ष को टालकर शान्तिपूर्ण वातावरण का निर्माण करेगा । सामान्यतया पारिवारिक जीवन में संघर्ष के दो केन्द्र होते हैं - पिता-पुत्र तथा सासबहू । इन दोनों विवादों में मूल कारण दोनों का दृष्टि-भेद है। पिता जिस परिवेश में बड़ा हुआ उन्हीं संस्कारों के आधार पर पुत्र का जीवन ढालना चाहता है । जिस मान्यता को स्वयं मानकर बैठा है, उन्हीं मान्यताओं को दूसरे से मनवाना चाहता है। पिता की दृष्टि अनुभव प्रधान होती है जबकि पुत्र की दृष्टि तर्कप्रधान । एक प्राचीन संस्कारों से ग्रस्त होता है तो दूसरा उन्हें समाप्त कर देना चाहता है । यही स्थिति सास-बहू में होती है । सास यह अपेक्षा करती है कि बहू ऐसा जीवन . जिये जैसा उसवे स्वयं बहू के रूप में जिया था जबकि बहू अपने युग के अनुरूप और अपने मातृ पक्ष के संस्कारों से प्रभावित जीवन जीना चाहती है । मात्र इतना ही नहीं, उसकी अपेक्षा यह भी होती
कि वह उतना ही स्वतन्त्र जीवन जीये जैसा वह अपने माता-पिता के पास जीती थी। इसके विपरीत श्वसुर पक्ष उससे एक अनुशासित जीवन की अपेक्षा करता है । यही सब विवाद के कारण बनते हैं । इसमें जब तक सहिष्णु दृष्टि और दूसरे की स्थिति को समझने का प्रयास नहीं किया जाता तब तक संघर्ष समाप्त नहीं हो सकता । वस्तुतः
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इसके मूल में जो दृष्टि-भेद है उसे अनेकान्त पद्धति से सम्यक् प्रकार जाना जा सकता है ।
वास्तविकता यह है कि हम जब दूसरे के सम्बन्ध में कोई विचार करें, कोई निर्णय लें तो हमें स्वयं अपने को उस स्थिति में खड़ा कर सोचना चाहिए। दूसरे की भूमिका में स्वयं को खड़ा करके ही उसे सम्यक् प्रकार से जाना जा सकता है। पिता पुत्र से जिस बात की अपेक्षा करता है, उसके पहले अपने को पुत्र की भूमिका में खड़ा कर विचार कर ले । अधिकारी कर्मचारी से जिस ढंग से काम लेना चाहता है उसके पहले स्वयं को उस स्थिति में खड़ा कर फिर निर्णय ले । यही एक दृष्टि है जिसके द्वारा एक सहिष्णु मानस का निर्माण किया जा सकता है और मानव जाति को वैचारिक संघर्षों से बचाया जा सकता है ।
आर्थिक समता का आधार अपरिग्रह का सिद्धान्त
आधुनिक मानस की एक अन्य सबसे बड़ी बुराई संग्रह और शोषण की दुष्प्रवृत्तियां हैं,
जिसके कारण समाज में वर्ग-विद्वेष एवं संघर्ष पनपता है । एक ओर मानवता रोटी के टुकड़ों के प्रभावों की पीड़ा में सिसकती है तो दूसरी ओर ऐशो आराम की रंग-रेलियां चलती हैं । यह आर्थिक वैषम्य सामाजिक शान्ति को भंग कर देता हैं ।
भगवान् महावीर ने 'उत्तराध्ययन सूत्र' में आर्थिक वैषम्य तथा तद्जनित सभी दुःखों का कारण तृष्णा की वृत्ति को माना । वे कहते हैं कि जिसकी तृष्णा समाप्त हो जाती है, उसके दुःख भी समाप्त हो जाते हैं । वस्तुतः तृष्णा का ही दूसरा नाम लोभ है और इसी लोभ से संग्रह वृत्ति का उदय होता है । 'दशवैकालिक सूत्र' में लोभ को समस्त सद्गुणों का विनाशक माना गया
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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