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दुराग्रह को हटाने के लिए भगवान महावीर ने करना था। अपनी योग्यता एवं शक्ति के अनुसार स्याद्वाद एवं अनेकांतवाद का सिद्धान्त प्रस्तुत कार्य करने में ही मनुष्य पूर्ण सन्तुष्टि प्राप्त करता किया । यह सिद्धान्त वैचारिक अहिंसा का है। इसलिए कर्म और श्रम-विभाजन की दृष्टि से प्रतिपादक है।
समाज हित में वर्ण व्यवस्था की गई किन्तु कालान्तर | आज का मानव भौतिक साधनों की बहुलता में यह व्यवस्था रूढ़ि-ग्रस्त होकर जाति-भेद की से अशांत है । भगवान् महावीर ने भौतिक ऐश्वर्य संकीर्णता में परिणत हो गई । महावीर ने दृढ़ता की चरम सीमा को स्पर्श करके भी एक विचित्र के साथ घोषित किया कि जन्म से कोई ऊंचा रिक्तता का अनुभव किया और उसकी पूर्ति उन्होने या नीचा नहीं होता है। उन्होंने दलित मानव को पान्तरिक चेतना एवं मानसिक तटस्थता से की । वे उसका उचित गौरव प्रदान किया । आज का निष्परिग्रही और निस्पही बने तथा दिगम्बर रूप मानव जातिवाद की संकीर्णता में पिसता, घुटता धारण किया। आज का परिग्रही मानव शांति प्रशान्त बना हा है। उसका मानस परस्पर ऊंचकी खोज में लवलीन है। ग्राज भौतिक ऐश्वर्य
नीच या घृणा विद्वेष के भावों का भण्डार बना में रिक्तता का अनुभव करके विदेशी लोग भारत हा है और वह अपने चारों ओर अशांति का में शांति प्राप्त करने पा रहे हैं । भौतिक साधनों
सृजन कर रहा है । ऐसी परिस्थियों में महावीर की बहुलता एवं प्रचुरता जीवन के लिए बोझ बन के सिद्धान्तों का महत्व स्वतः स्पष्ट हो जाता है । गई है और दूसरी ओर इससे विषमता उत्पन्न हो आज की भौतिकता का कुप्रभाव मानव मन रही है। इससे जीवन में जड़ता, गतिहीनता और को दुषित कर रहा है। वह आत्मशांति खोकर निष्क्रियता पाती है। परिग्रह का संचय, उसकी भटक रहा है। उसे दूसरों से उतना त्रास नहीं सुरक्षा, उसका अपने समाज के सुख में उपयोग, ये मिल रहा है जितना अपने क्रोध, मान, माया और सभी विचारणीय विषय हैं । महावीर स्वामी ने लोभ से । ये विकार उसके मानस को कषाययुक्त अपने चिन्तनअनचिन्तन से इस विषय की गहराई से एवं कलखित बना रहे हैं। वर प्रात्मशांति से बहत परखा और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्राव. दूर हो गया है । भगवान महावीर का उपदेश है श्यकता से अधिक संग्रह व्यक्ति के लिए अशांति कि कषायों को जीतकर, मन को स्वच्छ बनाकर कारक है, उसकी तृष्णा को बढ़ाने वाला है तथा ही हम शुद्ध आत्मतत्व की प्राप्ति कर सकते हैं। प्रात्मशांति में बाधक है । इससे क्रमशः समाज में उन्होंने आत्मा को ही साधक एवं साध्य बताया। भी विषमता और अशांति फैलती है, अतः प्रात्म- ज्यों-ज्यों साधक एवं साधक तप, संयम और अहिंसा शांति के लिए निष्परिग्रही या उचित परिग्रही को प्रात्मसात करता जायेगा, त्यों-त्यों वह साध्य के होना अनिवार्य है । भगवान् महावीर निष्परिग्रही रूप में परिवर्तित होता जावेगा । यही तो शाश्वत् थे और उन्होंने शाश्वत् आत्मशांति प्राप्त की- अात्मशांति का मार्ग है । भगवान् महावीर ने इसे उनका 2500 वां परिनिर्वाण महोत्सव भी विश्व अपने जीवन में प्राप्त किया और भावी मानव के के लिए प्रात्मशांति का जागरूक उपदेश एवं दिशा- लिए इसकी प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया। निर्देशक बन गया है । सामाजिक न्याय एवं शांति
गत वर्ष को विश्व में महिला वर्ष के रूप में के लिए महावीर ने अपरिग्रह का उपदेश दिया।
मनाया जा चुका है। युगों से नारी को पुरुष से प्रारम्भ में उचित वर्ण-विभाजन का आधार छोटा माना जाता रहा है । महाभारत काल में ही एवं लक्ष्य उचित श्रम की भावना को उत्कर्ष प्रदान नारी ने अपना महत्वपूर्ण स्थान खो दिया था। उसे
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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