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भगवान् महावीर की गार्हस्थिक अवस्था में उनका चिन्तन तथा पश्चात् में उनकी प्रात्मसाधना का संक्षिप्त दिग्दर्शन कराते हुए विद्वान् लेखक ने भगवान् महावीर के उपदेशों में से आधुनिक परम्परा का निर्वाह करते हुए उनके श्रहिंसा, अनेकान्त और स्याद्वाद तथा अपरिग्रह सिद्धांतों पर प्रकाश डाला है । हमारी समझ में उनके अचौर्य और ब्रह्मचर्य के सिद्धांतों की अवहेलना करके हम जीवन में कभी भी साफल्य लाभ नहीं कर सकते । श्रात्मोत्थान के लिए ही नहीं स्वस्थ समाज रचना के लिए भी इन व्रतों का परिपालन प्रत्यावश्यक है जिन पर समानरूप से जोर दिया जाना चाहिये। इनके बिना भ० महावीर के सिद्धातों का पूर्ण रूप से प्रस्तुतिकरण संभव नहीं है । आज समाज में और देश में जो अभीष्ट परिवर्तन नहीं हो पा रहा उनके मूल में भी इन दो व्रतों को विद्वानों द्वारा गौण कर दिया जाना है।
जब हम प्रतीत इतिहास के अंधेरे में बहुत दूर तक निकल जाते हैं तब हमें करीब 2500 वर्ष पूर्व एक दिन अलौकिक आलोक के दर्शन होते हैं । वह अलौकिक आलोक हैं तीर्थङ्कर भगवान् महावीर जिन्होंने वैशाली के तत्कालीन नरेश सिद्धार्थ के नन्द्यावर्त राजप्रासाद में राजमहिषी प्रियकारिणी त्रिशला देवी की कोख से जन्म लिया । एक सुप्रतिष्ठित राज परिवार में जन्म लेने के कारण जिनका लालन-पालन राजकुमारों जैसा होने में कोई कमी नहीं हुई । विपुल वैभव-सम्पदा की घनी छाया में जिनका बचपन बीता, किशोरावस्था पर्यन्त जिन्होंने अपने पिताश्री के कन्धे से कन्धा लगाकर उनके राज्य कार्य में सहयोग दिया, किन्तु एक राजपुत्र के नाते नहीं एक हितैषी सखा के समान । जीवन के 30 वसन्तों के प्रस्त होते होते उन्होंने विपुल ज्ञानाभ्यास के द्वारा समस्त शास्त्रों का दोहन कर लिया था । सिद्धार्थ के राजभवन के अन्दर ही नहीं आस-पास के सभी राज्यों में भी क्या रूप में, क्या विद्या में और क्या बल में
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समस्याओं के समाधान में भ० महावीर के उपदेशों का सामर्थ्य
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
प्र० सम्पादक
● श्री सुभाषचन्द्र दर्शनाचार्य शान्ति नगर, श्री महावीरजी [ [ राज० ]
वे अतुलनीय थे । राजा और रानी अपने ऐसे असाधारण सर्वगुणसम्पन्न लाल को देख कर प्राकृतिक रूप से कुछ अधिक ही स्वस्थ हो जाया करते थे । एक से एक रूप माधुर्य में अनुपम तरुणियाँ उनसे विवाह करने के लिये उद्यत थीं ।
नेकों देशों के राजे-महाराजे उन्हें अपना जवांई बनाने के स्वप्न देखा करते थे । उनकी माता अपने राजप्रासाद में पुत्रवधु के आने के दिन बड़ी ही बेचैनी से गिन रही थी। तभी एक दिन महावीर के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा जाता है, उनसे विवाह की स्वीकृति माँगी जाती है तब तनिक भी विचलित हुये बिना महावीर कहते हैं—अरे ! इस जीव ने अनन्तकाल से इस संसार में अनेकों बार जन्म लेकर विवाह किया और भोगों को भोगा किन्तु इसकी भोगेच्छा अब तक भी समाप्त नहीं हुई । पुनः पुनः जन्म, विवाह, भोग और पुनः यही संसार यह क्रम सदा से चलता आ रहा है किन्तु अब तक जीव का संसार नहीं छूटा है । पर अब तो इस संसार के बन्धन से छूटना ही होगा, इस संसार से
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