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संग्रह तो करेंगे ही नहीं आवश्यक वस्तु को भी असत् ही है, नित्य ही है, अथवा अनित्य ही है, इस दूसरों के लिए सहज त्याग देंगे। आज जो संग्रह- प्रकार के सर्वथा एकान्त के निराकरण का नाम जनित व्यावसायिक लाभ की प्रवृत्ति पल्लवित हो ही अनेकान्त है। यथार्थ में एकान्त अपूर्णदर्शी और रही है, उससे मुक्ति के लिये अपरिग्रह को आत्म- अनेकान्त पूर्णदर्शी है । एकान्त मिथ्याभिनिवेश के सात् करना आवश्यक है।
कारण वस्तु के एक अंश को ही पूर्ण सत्य मानता 'व्यक्ति के प्रति भी ममत्व न हो' इस कथन का
है, जिससे विरोध उत्पन्न होता है। अनेकान्त प्राशय भी यही है कि व्यक्ति केवल अपने परिवार विरोधों का परिहार कर उनका समन्वय करता की ओर न देखे । उसका दृष्टिकोण समस्त मानवता के हित की ओर अग्रसर हो । आज प्रशासन और महावीर कालीन दार्शनिक एकान्त मिथ्यात्व अन्य क्षेत्रों में जो भ्रष्टाचार एवं अनुचित रीति से अर्थात् आंशिक सत्य को पूर्ण सत्य समझकर अपनी धन-संग्रह की प्रवृत्ति व्याप्त है, अपनों के प्रति भ्रामक मान्यतामों का प्रतिपादन एवं प्रसारण कर ममत्व ही उसके मूल में है । ममत्व और परत्व का रहे थे । इसी काल में तत्वद्रष्टा अहिंसक हृदय विगलन तथा समत्व का विकास अपरिग्रह का भगवान महावीर ने वस्तु के विराट स्वरूप का लक्ष्य है।
निरूपण कर कहा-वस्तु की अनन्तरूपात्मकता को विविध सम्प्रदायों और पंथों से भरे इस युग
विस्मृत कर दूसरों के दृष्टिकोला पर मिथ्यात्व का में तीर्थङ्कर महावीर के अनेकान्त की उपयोगिता
आरोपण मिथ्यात्व है, हिंसक व्यवहार है। यह और अधिक हो गई है। भगवान महावीर का
__ तत्वज्ञों का कार्य नहीं है । स्याद्वाद इस अनन्तकथन था कि ज्ञान पूर्णसत्य को एक साथ जान ।
धर्मात्मक वस्तु के प्रतिपादन का साधन है । सकता है, किन्तु शब्द उसे एक साथ यथावत् स्याद् शब्द संभावना या सन्देह का मूलक नहीं प्रकाशित नहीं कर सकते। ज्ञाता अपने अभिप्राय अपितु किसी अपेक्षा विशेष से वस्तु किस प्रकार की के अनुसार वस्तु के एक पक्ष को प्राधान्य देता है है इस अर्थ (कथंचित्) का बोधक है। यह सत्य दूसरा पक्ष गौण हो जाता है। इन कारणों से को अनावृत करने की प्रक्रिया है । इसके विना पूर्ण उत्पन्न हये विवाद को अनेकान्तवाद द्वारा ही दूर सत्य की शोध सम्भव नहीं। अलबर्ट आइन्स्टीन किया जा सकता है। भगवान महावीर प्रखण्ड ने प्रसिद्ध सापेक्षवाद के सिद्धांत की स्थापना कर सत्य को अनन्त दृष्टिकोणों से देखने का सन्देश इस सिद्धान्त को ही स्वीकार किया है। उसका कथन देते थे क्योंकि प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है और है कि हम केवल आपेक्षिक सत्य को ही जान सकते कथनी सापेक्ष तथा वक्ता को विवक्षा के अधीन हैं, सम्पूर्ण सत्य को सर्वज्ञ ही जान सकता है । होती है। सत्य तक प'चने के लिये पनन्तर्यात्मक स्यादवाद भी यही कहता है कि वस्त का इन्द्रियवस्तु को अनन्त दृष्टिकोणों से देखना होगा। ग्राही स्वरूप कुछ और होता है और वास्तविक अनेकान्त शब्द का अर्थ है अनन्त धर्म । एक ही स्वरूप कुछ और । हम उस रूप को देखते हैं, जो वस्तु में नित्य-अनित्य, अस्ति-नास्ति, एक-अनेक इन्द्रियों का विषय है । सर्वज्ञ बाह्य और आन्तरिक मादि परस्पर विरोधी कहे जाने वाले धर्म विद्यमान स्वरूप को युगपत् देख सकते हैं । रहते हैं। वस्तु का वस्तुत्व ही विरोधी धर्मों के महावीरप्रसाद द्विवेदी का इस स्याद्वाद के अस्तित्व में है तथा वस्तु सर्वथा सत् ही है अथवा विषय में कथन है। 'प्राचीन ढर्रे के बड़े-बड़े महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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