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है । "भावे बन्धः" और "भावे मोक्षः" का सिद्धान्त ही समान रूप से मोक्ष के अधिकारी हैं। (दिगम्बर महावीर के स्वातन्त्र्य बोध को और भी स्पष्ट ऐसा नहीं मानते। उनके अनुसार नारी अपनी कर देता है। उनकी वाणी इसी समन्वय के सिद्धान्त प्राकृतिक कमजोरियों के कारण अपनी आत्मा का को पुष्पित एवं पल्लवित करती है। भगवान् इतना विकास नहीं कर सकती कि वह उसी भव महावीर ने समाज में नारी और पुरुष दोनों को से मुक्तिलाभ कर सके। वर्तमान काल में तो दोनों ही समान स्वतन्त्रता का अधिकार दिया है। ही सम्प्रदायों के अनुसार न तो पुरुष मुक्त हो उन्होंने नारी के अभ्युदय के लिए यथाशक्ति प्रयत्न सकता है और न स्त्री । प्र० सम्पादक) किये । नारी को उसका अतीत गौरव एवं खोयी हुई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त कराने में भगवान् महावीर
भगवान महावीर के समय में पुरुषों की भांति निरन्तर तत्परता से लगे रहे।
स्त्रियों को सभी धार्मिक अधिकार उपलब्ध थे।
स्त्रियां निस्संकोच किसी भी सभा में अथवा धार्मिक भगवान् महावीर ने जीवन में प्रत्येक क्षेत्र में समवसरण पर अपनी शंकाओं का समाधान कर नारी को पूर्ण विकास का अधिकारी माना । परि- सकती थीं। महावीर ने अपने समय में प्रचलित रणामस्वरूप तत्कालीन समाज में नारियों को दास प्रथा के उन्मूलन के लिए सतत् प्रयास किये। सम्मान पूर्ण स्थान प्राप्त हुया । नारियां सामाजिक, मेघकुमार की सेवा शुश्रूषा के लिए जब देशसांस्कृतिक, साहित्यिक एवं राजनीतिक सभी क्षेत्रों विदेश से दासियों का क्रय-विक्रय हा तब भगवान में पुरुष की सहयोगिनी थीं। उसे अपने व्यक्तित्व महावीर ने उसकी तीव्र भर्त्सना की। उन्होंने स्त्री के सर्वतोमुखी विकास करने के लिए समस्त विषयक प्राचीन काल से प्रचलित दूषित परम्परागों अवसर उपलब्ध थे।
पर कुठाराघात किया और सम्भवतः इसीलिए
उन्होंने भिक्षुणी संघ की स्थापना की। इसका मुख्य जैन धर्म ग्रन्थ इस तथ्य के साक्षी हैं कि आगे उद्देश्य नारी जाति का उद्धार था। समाज के जाकर महावीर के जीवन दर्शन से उपकृत होकर प्रत्येक वर्ग की स्त्री दीक्षा ग्रहण कर समाज में अनेक राज महिषियां, श्रेष्ठिकुल की दासियां तथा सम्माननीय पद प्राप्त कर सके। महावीर स्वामी दलित वर्ग की नारियां अपने जीवन को पावन के इस संघ में भिक्षों से अधिक भिक्षणियों का एवं धन्य बना सकी।
होना स्त्री जाति के प्रति उनके उदार दृष्टिकोण
का परिचायक है । साथ ही इस तथ्य की भी __ भगवान् महावीर ने नारी एवं पुरुष में आत्मा ,
पुष्टि होती है कि स्त्री जाति के हृदय में भगवान् की समानता एवं एकरूपता का प्रतिपादन किया।
के प्रवचनों के प्रति कितना आदर सम्मान था। दोनों में एक ही आत्मा है और इसलिए उन्हें
उन्होंने न केवल गृहस्थ से दूर रहने वाली स्त्रियों समान रूप से विकास करने का अधिकार है।
___ को ही दीक्षित किया अपितु गृहस्थाश्रम में उन्होंने जैन धर्म का मुख्य उद्देश्य 'भावे बन्धः भावे मोक्ष':
स्त्री को पूर्ण सम्मान दिलाने का प्रयास किया। है। वह यह नहीं देखता कि साधक किस जाति
उन्होंने कहा-सप्पुरुषो पुत्तदारस्स अत्याए हिताए का है, किस सम्प्रदाय का अनुयायी है, किस वर्ण
सुखाए होति । अर्थात् उनकी दृष्टि में सत्पुरुष वही और लिंग का है। अतः नारी को पुरुष से हेय
है जो पत्नी के हित का समुचित ध्यान रखता है। समझना अज्ञान एवं अधर्म है। वासना, विकार एवं कर्मजाल को काट कर पुरुष और नारी दोनों भगवान् महावीर के युग में विधवा स्त्रियों
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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