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का आश्वासन प्रदान करती है। क्रोध, लोभ, मोह, माया, वैमनस्य आदि अनुदात्त प्रवृत्तियों का निषेध करती है । संसार में असंख्य प्रारणी हैं, जिनके प्रकार तक की गणना सम्भव नहीं है । अहिंसा इन सभी प्राणियों की जीवनरक्षा की मंगलकामना करती है । हिंसा में विश्वबन्धुत्व और प्राणिमात्र के प्रति करुणाभाव के दर्शन होते हैं । इसमें विश्व मंगल का भाव स्पष्ट है, अतः यह विश्वधर्म की प्रतीक है । इसी अहिंसा धर्म के स्तवन में एक जैनाचार्य ने कहा है - जिसे संसार निरन्तर नमस्कार करता है, विनम्राञ्जलि प्रदान करता है, वह तीर्थङ्करों द्वारा निर्दिष्ट सम्पूर्ण संसार का मान्य धर्म अहिंसा है । इस अहिंसा धर्म के एक पार्श्व में स्याद्वाद और दूसरे पार्श्व में अनेकान्तरूप कल्पद्रुम स्थित है, मानों किसी सम्राट् के दोनों प्रोर दो चामरधारी स्थित हों ।
यं लोका सकृन्नमन्ति ददते यस्मै विनम्राज्जलि, मार्गस्तीर्थकृतां स विश्वजगतां धर्मोऽस्त्यहिंसाभिधः । नित्यं चामरवारणमिव बुधाः यस्यैकपार्श्वे महान्, स्याद्वादः परतो बभूवतु स्थानैकान्तकल्पद्रुमः ॥
सांसारिक सुख अर्थमूलक होते हैं अतः अनर्थबहुल अर्थ संचयन की ओर मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है । सञ्चय की घातक प्रवृत्ति का संयमन आवश्यक है, अन्यथा मानव के लिये अपनी लालसाओं के संसार को समेटना तथा असीमित श्रावश्यकताओं को सीमा की परिधि में रखना असंभव हो जायेगा । मानव के वृद्ध होते जाने पर भी तृष्णा नित तरुण होती जाती है । वर्तमान युग में पूजी के एकत्रीकरण और असमान वितरण की समस्या विषमतर हो गई है। इस युग का सारा आक्रोश, सारा असंतोष अर्थजन्य विषमता से उद्भूत हुआ है । इसी जटिल समस्या से त्राण पाने के लिये समाजवाद और साम्यवाद जैसे सिद्धान्तों का जन्म हुआ किन्तु समस्या फिर भी उतनी ही
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उग्र रही । वैधनिक प्रावधानों द्वारा भी इसका नियमन संभव नहीं हो सका है। मानव की तीक्ष्ण दुर्बुद्धि अपने अनुरूप मार्ग खोज ही लेती है ।
इस समस्या का समाधान तभी सम्भव है, जब मनुष्य स्वयं भौतिक समृद्धि में ममत्व कम कर दे । अपरिग्रह का सिद्धान्त मानव को अर्थ-मोह कम करने की शिक्षा देता है । श्रासक्ति ही परिग्रह है । मूर्च्छा अर्थात् परद्रव्यों में मोह परिग्रह है । एक निर्धन व्यक्ति भी परिग्रही है, यदि वह अप्राप्य सम्पत्ति के प्रति उत्कट मोह रखता है । धनाढ्य व्यक्ति भी अपरिग्रही है, यदि उसका अपनी अपरिमत सम्पत्ति के प्रति मोह भाव न हो । नीतिमार्ग से असीम सम्पदा प्राप्त नहीं हो सकती, जैसे सरिता स्वच्छ जल से परिपूर्ण नहीं होती, अतः धनलिप्सा को घटाना ही अपरिग्रह है । परिग्रह शब्द परि और ग्रह शब्द की संयुक्ति से व्युत्पन्न है । परि उपसर्ग का अर्थ है परितः अर्थात् सब ओर से, दशों दिशाओं से हर प्रकार से न्याय-अन्याय, योग्यअयोग्य का विवेक किये बिना परपदार्थों का परिग्रहण परिग्रह है ।
अपरिग्रह व्यक्ति को निर्भीक, निराकुल, निराकांक्षी, निज- चैतन्य स्वभाव की ओर उन्मुख करता है । उसके आचरण को नियन्त्रित कर व्यक्ति एवं समाज के मंगलमय भविष्य को प्राश्वस्त करता है । समाज में सुव्यवस्था तथा संसार में शांति स्थापना के लिये यह अपरिग्रह जीवनदायी पाथेय है ।
भगवान् महावीर ने कहा था कि आवश्यकता से अधिक संग्रह पाप है, सामाजिक अपराध है, आत्म छलना है । ऐसा भी प्राणि वर्ग है जो इसके प्रभाव में प्राकुल है, अतः न्याय का मार्ग यही है कि आवश्यकता से अधिक संग्रह न किया जाये । वस्तु के प्रति ममत्व न होने पर व्यक्ति अनावश्यक
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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