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- अज्ञानी का भ्रम
श्री प्रसन्नकुमार सेठी, जयपुर
'कहां आत्मा होगा?' यह क्या प्रश्न पूछने लायक है । प्रश्न जहां से उठा, वहीं तो स्वयं आत्मा ज्ञायक है ।। निज को निज का ज्ञान न हो, यह अनसमझी है, धोखा है। इससे बड़ा ताज्जुब क्या हो, जल ने जल को सोखा है ।।
देह विनाशी, मैं अविनाशी, देह दृश्य, मैं दृष्टा हूँ। पुद्गल रूपी देह, अरूपी मैं अपना ही सृष्टा हूँ ।। तन संयोगी, इन्द्रियगोचर, कृत्रिम गोरा काला है । किन्तु पात्मा सूक्ष्म, अतीन्द्रिय, निर्मल और निराला है ।।
एक बार की बात सुनो, दस मूर्ख गांव से जाते थे। बीच मार्ग में नदी मिल गई, तैर-तैर कर आते थे ।। पहुचे पार दूसरी, बोला एक “समझी कुछ पाई जी । कहीं डूब तो नहीं गया हममें से कोई भाई जी ॥"
ऐसा कहकर लगा दूसरों को गिनने, खुद को भूला। नौ ही निकले गिनती में अब तो असमंजस में झला ।। बोला "लगता है हममें से एक आदमी खोया सा ।" गिना दूसरे ने, नो ही निकले, वह भी था रोया सा ।।
क्रम-क्रम से सबने गिनती की औरों की, खुद को भूले। नो ही पाये संख्या में जब, सब के हाथ-पांव फूले ।। एक विवेकी राहगीर उनकी उलझन समझा, प्राया । पंक्ति बनाकर खड़ा किया सबको, गिनकर के बतलाया ।।
जब दस निकले, छूट गया भ्रम, उसी तरह से लालाजी। अज्ञानी जीवों ने तो अपनत्व देह में पाला जी॥ ज्ञानी उनको समझाते हैं, 'तुम अद्वंत, अरूपी हो ।' राग तुम्हारा रूप नहीं, तुम ज्ञानानन्द स्वरूपी हो ।।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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