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है । जैन विचारधारा के अनुसार तृष्णा एक की वस्तुओं का अपहरण करता है। इस प्रकार ऐसी दुष्तर खाई है जिसका कभी अन्त नहीं आता। आसक्ति का बाह्य प्रकटन निम्नलिखित तीन रूपों 'उत्तराध्ययन सूत्र' में इसी बात को स्पष्ट करते हुए में होता है-(१) अपहरण (शोषण), (२) भगवान् महावीर ने कहा है कि यदि सोने और भोग, और (३) संग्रह । चाँदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत भी खडे कर दिये जाएँ तो भी यह तृष्णा शान्त नहीं हो संग्रह वृत्ति एवं परिग्रह के कारण उत्पन्न समस्याओं सकती, क्योंकि धन चाहे कितना भी हो वह
के निराकरण के उपाय सीमित है और तृष्णा अनन्त (असीम) है । भगवान् महावीर ने संग्रहवृत्ति के कारण अतः सीमित साधनों से असीम तृष्णा की पूर्ति नहीं उत्पन्न समस्याओं के समाधानों की दिशा में विचार की जा सकती।
करते हुए यह बताया कि संग्रहवृत्ति पाप है । यदि
मनुष्य आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह वस्तुतः तृष्णा के कारण संग्रहवृत्ति का उदय
करता है तो वह समाज में अपवित्रता का सूत्रपात होता है और यह संग्रह वृत्ति आसक्ति के रूप में
करता है। संग्रह फिर चाहे धन का हो या अन्य बदल जाती है और यही आसक्ति परिग्रह का मूल ।
किसी वस्तु का, वह समाज के अन्य सदस्यों को है। 'दशवकालिक सूत्र' के अनुसार आसक्ति ही
उनके उपभोग के लाभ से वंचित कर देता है। वास्तविक परिग्रह है । भारतीय ऋषियों के
परिग्रह या संग्रह वृत्ति एक प्रकार की सामाजिक द्वारा अनुभूत यह सत्य आज भी उतना ही यथार्थ
हिंसा है । जैन आचार्यों की दृष्टि में सभी परिग्रह है जितना कि उस युग में था जबकि इसका कथन
हिंसा से प्रत्युत्पन्न हैं । व्यक्ति संग्रह के द्वारा दूसरों किया गया होगा। न केवल जैनदर्शन में अपितु
के हितों का हनन करता है और इस रूप में संग्रह बौद्ध और वैदिक दर्शनों में भी तृष्णा को समस्त सामाजिक वैषम्य और वैयक्तिक दुःखों का मूल
या परिग्रह हिंसा का ही एक रूप बन जाता है ।
अहिंसा के सिद्धान्त को जीवन में उतारने के लिए कारण माना गया है । क्योंकि तृष्णा से संग्रहवृत्ति
जैन आचार्यों ने यह आवश्यक माना कि व्यक्ति उत्पन्न होती है--संग्रह शोषण को जन्म देता है
बाह्य परिग्रह का भी विसर्जन करे । परिग्रह-त्याग और शोषण से अन्याय का चक्र चलता है।
अनासक्त दृष्टि का बाह्य जीवन में दिया गया इस प्रकार हम देखते हैं कि मानव में संग्रह- प्रमाण है। एक अोर विपुल संग्रह और दूसरी ओर वृत्ति या परिग्रह की धारणा का विकास उसकी अनासक्ति का सिद्धान्त, इन दोनों में कोई मेल नहीं तृष्णा के कारण ही हुआ है। मनुष्य के अन्दर हो सकता, यदि मन में अनासक्ति की भावना का रही हुई तृष्णा या आसक्ति मुख्यतः दो रूपों में उदय है तो उसका बाह्य व्यवहार में अनिवार्य रूप प्रकट होती है--(१) संग्रह भावना और (२) से प्रकटन होना चाहिए। अनासक्ति की धारणा भोग भावना । संग्रह भावना और भोग भावना से को व्यावहारिक रूप देने के लिए गृहस्थ जीवन प्रेरित होकर ही मनुष्य दूसरे व्यक्तियों के अधिकार में परिग्रह-मर्यादा और श्रमण जीवन में संग्रह
1. दशवकालिक सूत्र 8137 2. उत्तराध्ययन सूत्र 9148 .. 3. दशवकालिक सूत्र 6121
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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