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उन्हें एक दूसरे के विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार करती और वर्तमान के सभी अर्हत् यही उपदेश करते हैं है, हिंसा की ही विविध अभिव्यक्तियां हैं। हमारा कि सभी प्राण, सभी भूत, सभी जीवन और सभी दुर्भाग्य तो यह है कि हम अहिंसा की बात करते हैं सत्व को किसी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुःख किन्तु हिंसा में जीते हैं । एक जमाना था जब मनुष्य नहीं देना चाहिए, न किसी का हनन करना अपनी हिंसक वृत्तियों का प्रदर्शन धर्म के नाम पर चाहिए । यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है। करता था, वह अपने संघर्षों को धर्म युद्ध की संज्ञा जिसका समस्त लोक की खेद पीड़ा को जानकर देता था, आज भी हम विश्व शान्ति के लिए युद्ध अर्हतों के द्वारा प्रतिपादन किया गया है । वस्तुतः करते हैं, यह सब प्रात्मप्रवंचना है, धर्म का युद्ध से प्राणियों के जीवित रहने का नैतिक अधिकार ही अथवा शान्ति का संघर्ष से कोई तालमेल नहीं है। अहिंसा के कर्तव्य की स्थापना करता है । जीवन शान्ति और धर्म हिंसा से नहीं, अहिंसा से ही प्रति- के अधिकार का सम्मान ही अहिंसा है। उत्तराफलित हो सकते हैं । भगवान् बुद्ध ने कहा कि वैर ध्ययन सूत्र में समत्व के आधार पर अहिंसा के से वैर शान्त नहीं होता है । हिंसा से हिंसा ही सिद्धान्त स्थापना करते हुए कहा गया है-भय
गी, अहिंसा नहीं। वस्तुतः हिंसा के और देर से मुक्त साधक जीवन के प्रति प्रेम रखने मूल में धृणा, भय, आक्रोश, स्वार्थ एवं भोगलिप्सा वाले प्राणियों को सर्वत्र अपनी आत्मा के समान की प्रवृत्तियां ही काम करती हैं और जब तक इन जानकर उनकी कभी भी हिंसा न करे । यह पर विजय प्राप्त नहीं की जाती है, अहिंसा का मेकेन्जी की भय पर अधिष्ठित अहिंसा की धारणा जीवन में प्रकटन सम्भव नहीं है। इनके विपरीत का सचोट उत्तर है। प्राचीनतम जैन आगम अहिंसा के प्राधार हैं प्रेम, प्रात्मीयता, त्याग, समता, प्राचारांग सूत्र में तो आत्मीयता की भावना करुणा । उसकी विशिष्टता का वर्णन करते हुए आधार पर ही अहिंसा सिद्धान्त की प्रस्तावना की महावीर कहते हैं, भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों गई है। जो लोक (अ-य जीव समूह) का अपलाप को जैसे गगन, तृषितों को जैसे जल, भूखों को जैसे करता है वह स्वयं अपनी आत्मा का भी अपलाप भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, रोगियों को जैसे करता । इसी ग्रन्थ में आगे आत्मीयता की औषध, और वन में जैसे सार्थवाह का साथ आधार- भावना को परिपुष्ट करते हुए महावीर कहते हैंभूत है, वैसे ही अहिंसा प्राणियों के लिए आधार- जिसे तू मारना चाहता वह तू ही है जिसे तू भूत है । अहिंसा चर एवं अचर सभी प्राणियों का शासित करना चाहता है वह तू ही है, जिसे तू कल्याण करने वाली है। वही मात्र एक ऐसा परिताप देना चाहता है वह तू ही है। शाश्वत धर्म है जिसका सभी तीर्थकर उपदेश करते जैन धर्म में अहिंसा की यह भावना कितनी हैं।1 आचारांग सूत्र में कहा गया है-भूत भविष्य आवश्यक है यह बताने के लिए प्रश्न व्याकरण
1. प्रश्नव्याकरण सूत्र 6121 2. प्राचारांग सूत्र 11412 3. उत्तराध्ययन सूत्र 617 4. प्राचारांग सूत्र 11113 5. आचारांग सूत्र 11515
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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